जेबक़तरे

jebaqatre

अविनाश मिश्र

अविनाश मिश्र

जेबक़तरे

अविनाश मिश्र

और अधिकअविनाश मिश्र

    वे हर जगह नहीं थे

    हर जगह हम थे

    उन्हें हर जगह समझते हुए

    कुछ काटते हुए हर बार जो लाल रंग-सा उभर आता है

    वे चाहकर भी इसे किसी कमज़ोरी से नहीं जोड़ पाते

    ऐसा करना पेशेवर नहीं है

    भ्रूण से देह में विकसित होते ही

    वे समाज के विपरीत एक तत्त्व बनते गए

    तमाम और भी ख़तरे थे जिन्हें वे उठा सकते थे

    लेकिन हर बार यहाँ-वहाँ उभर आने वाला लाल रंग...

    वे बहुत दुबले हैं

    थोड़ा दूर से देखने पर

    वे पिघलते हुए नज़र आते हैं

    क़रीब जाकर देखने पर

    वहाँ धुआँ नज़र आता है

    ऐसा माना जाता है कि

    उनका माचिस माँगना ख़तरनाक हो सकता है

    वे बुझे-बुझे से नज़र आते हैं

    वे ग़लत थे

    और अपने ग़लत होने को देख नहीं पा रहे थे

    ये क्रियाएँ बहुत पुरानी-सी हैं

    वे काले हैं जेब के अँधेरे की तरह

    और बदशक्ल हाथ-दर-हाथ बदलते रहने वाले नोट की तरह

    वे ख़ाली हैं ख़ालीपन से बेतरह नफ़रत करते हुए

    बेहद तेज़ भर रहे सफ़र में वे अवरोधकों की तरह हैं

    एक अवांछित स्पर्श चाहते हुए

    भीड़ उन्हें आकर्षित करती है और मार उन्हें अनुकूलित

    यक़ीन के नज़दीक वे एक ब्लेड की तरह हैं

    वे इस किरदार का बदल ढूँढ़ा करते हैं

    तमाम और भी ख़तरे हैं जिन्हें वे उठा सकते हैं

    लेकिन पैसे के लिए पेशे नहीं बदलते रहते वे

    ऐसा करना पेशेवर नहीं है

    और फिर बार-बार यहाँ-वहाँ उभर आने वाला लाल रंग...

    वे नामालूम कब से इस तरह चढ़ रहे हैं

    जैसे उतर रहे हों

    दो पलास्टर चढ़े पैरों और एक चीख़ के साथ

    वे कभी भी गिर सकते हैं

    स्रोत :
    • रचनाकार : अविनाश मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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