जब तुम्हारे न रहने की ख़बर आई

jab tumhare na rahne ki khabar i

प्रियदर्शन

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जब तुम्हारे न रहने की ख़बर आई

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    मुंबई के रास्ते था। तभी वीरेन डंगवाल के न रहने की ख़बर सुनी। मन ख़राब हो गया। भिंची हुई रुलाई जैसा कुछ। इसी में जैसे-तैसे कुछ लिखा। यह श्रद्धांजलि नहीं है। पता नहीं क्या है।

    एक

    सितंबर की चमकती धूप में
    नहा रहे थे हरे पत्ते, पौधे, पेड़
    और रंग-बिरंगे फूल
    कुछ उसी तरह
    जैसे तुम्हारी कविताओं की रोशनी में
    और उनके स्पर्श से
    हमारी आत्माएँ निखर आती हैं
    हम सब भीतर से कुछ चमक जाते हैं।

    यह सुबह साढ़े आठ बजे का समय था वीरेन दा
    जब मैं एक सफ़र पर निकला था
    और तभी मिला तुम्हारे बहुत दूर निकल जाने का संदेश
    जैसे सारा दृश्य एक बार थरथराया और जड़ हो गया
    धूप बुझ गई, पत्ते काले पड़ गए, फूल मुरझा गए, रास्ते खो गए, 
    सफ़र बेमानी हो गया,
    तब उस अँधेरे में यह तुम्हारे शब्दों की ही उजली देह थी
    जिससे किसी बच्चे की तरह कस कर चिपट गया मैं
    जिसकी उँगली थामकर तुम्हारी कविताओं के जंगल में भटकता रहा देर तक।

    तुमने कहा है, इसलिए आएँगे उजले दिन,
    लेकिन यह उजला दिन नहीं था।

    दो

    तब तुमसे बात करने की
    बहुत गहरी इच्छा ने जकड़ लिया मुझे
    जो कातर रुलाई में बस बदलते-बदलते रह गई
    हमारे बीच न जाने कितनी स्थगित मुलाक़ातें रहीं
    न जाने गपशप की कितनी अधूरी छूटी कामनाएँ
    आत्मीयता और गर्मजोशी का वह छलकता हुआ समंदर जो तुम थे
    न जाने कितनी धाराओं और नदियों को समाता रहा
    अपने में
    अक्सर दूर खड़ा रहा मैं
    देखता रहा तृप्त भाव से वह लीला
    और उसी से भरता रहा अपने अभाव को
    मगर अब परदा गिर गया है
    बत्तियाँ बुझ गई हैं
    फिर भी एक छाया की तरह चल रहा है कोई
    जिसे छूना चाहता है मन।
    यह कौन है वीरेन दा?

    तीन

    वह एक और मन था राम का जो न थका
    नीला आईना बेठोस टूट गया
    अब तक न खोजी गई अभिव्यक्ति गुम हो गई
    तुम्हारे जाने से याद आए वे सारे पुरखे
    जिन्होंने तुम्हारे साथ मिलकर गढ़ा है मुझे चुपचाप 
    वहाँ जाना तो बताना
    बहुत बेनूर होती जा रही हिंदी की दुनिया 
    अब भी दाढ़ी वाले सप्तर्षियों की बदौलत अपनी फ़क़ीरी और फक्कड़ता पर अभिमान करती है
    कि ऐसे संसार में, जो अपने खाए-पिए, अघाए घमंड
    के साथ सबको देखने और कुचलने का अभ्यासी हो चला है
    तुम्हारी कविताएँ बची हुई हैं जिनमें इस अहंकार को ठोकर मारने का साहस है
    और पाने-खोने के खेल से परे
    जीवन की वह सहज महिमा जिसे चूहे कुतर नहीं पाएँगे।

    इसी से बनता है भरोसा कि उजले दिन आएँगे
    मगर यह उजला दिन नहीं था कवि हमारे, रचयिता हमारे,
    हर दुष्चक्र के पार जा चुके स्रष्टा हमारे।

     
    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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