जान इस बार मत करना किसी से प्यार

jaan is bar mat karna kisi se pyar

देवयानी भारद्वाज

देवयानी भारद्वाज

जान इस बार मत करना किसी से प्यार

देवयानी भारद्वाज

और अधिकदेवयानी भारद्वाज

    जान

    तुम्हारी कविताएँ मेरे भीतर एक कोहराम मचा देती हैं

    मैं जैसी भी हूँ

    ठीक ही हूँ

    हवाएँ अब भी सहलाती हैं मुझे

    बस तुम्हारी छुअन नहीं तो क्या

    धूप अब भी उतनी ही तीखी है

    बस अब बारिशों का इंतज़ार नहीं रहा

    एक रास्ता है

    जो दूर अनंत तक जाता है

    एक चाह है

    जो उस अनंत के पार देखती है हमें

    तुम बैठे हो मूढ़े पर

    तुम्हारी गोद में मेरी देह ढुलक रही है

    तुम्हारे हाथ गुदगुदा रहे हैं मुझे

    और मेरे चेहरे पर तैर रही हँसी का अक्स

    झलक रहा है तुम्हारी आँखों में

    और तुम्हारी उँगलियों की सरगम में भी

    एक याद है विशुद्ध

    जिसका छाता तान

    चलना सोचा है मैंने

    इस लंबी तपती राह पर

    जो अनंत तक जाती है

    जिस अनंत के छोर पर

    हम खड़े हैं साथ

    तुम्हारे सीने में धँसा लिया है

    मैंने अपना चेहरा

    तुमने कस कर भर लिया है मुझे अपनी बाँहों में

    यह बात दीगर है कि

    शेष प्राण नहीं हैं उस देह में

    यह अंतिम विदा का क्षण है

    हमने सड़कों पर पागलपन में भटकते हुए बिताई हैं रातें

    करते हुए ऐलान अपने पागलपन का

    हमने बिस्तर में झगड़ते हुए बिताई हैं कई दुपहरें

    ढूँढ़ते हुए प्यार

    हमारी यही नियति है

    कि हम लिखें इस तरह

    कि कर दें लहूलुहान

    और देखें एक दूसरे की देह पर

    अपने दिए

    नख-दंतक्षत के निशान

    हम प्रेम और घृणा को अलग-अलग देखना चाहते हैं

    हमारे हृदय में जब उमड़ रहा होता है प्रेम

    उस वक़्त पाया है मैंने

    सबसे ज़्यादा पैने होते हैं हमारे नाख़ून

    तीखे होते हैं दाँत उसी वक़्त सबसे ज़्यादा

    प्रेम तुम्हारी यही नियति है

    तुम निरपेक्ष नहीं होने देते

    होने देते हो निस्पृह

    तुम क्यों घेर लेते हो इस तरह

    कि खो जाता है अपना आप

    कि उसे पाया नहीं जा सकता फिर कभी

    मुझे कभी-कभी उस बावली औरत की याद आती है

    जो भरी दुपहरियों में भटकती थी सड़कों पर

    भाँजती रहती थी लाठी यहाँ-वहाँ

    किसी के भी माथे पर उठा कर मार देती थी पत्थर

    उसका पति खो गया था इस शहर में

    जिससे उसने किया था बेहद प्यार

    उसकी याद में उसे सारा शहर सौतन-सा नज़र आता था

    प्रेम में इंसान कितना निरीह हो जाता है

    कितना निरुपाय और निहत्था

    जान

    इस बार मत करना किसी से प्यार

    यदि करो भी तो

    कम से कम उसे यक़ीन मत दिलाना

    बार-बार इस तरह किसी का दिल दुखाना

    तुम्हारे चेहरे पर जँचता नहीं है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : देवयानी भारद्वाज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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