इतिहास में पन्ना धाय

itihas mein panna dhay

प्रियदर्शन

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    मैं शायद तब सोया हुआ था

    जब तुम मुझे अपनी बाँहों में उठाकर राजकुमार की शय्या तक ले गई माँ,

    हो सकता है, नींद के बीच यह विचलन इस आश्वस्ति में फिर से नींद का हिस्सा हो गया हो कि

    मैं अपनी माँ की गोद में हूँ

    लेकिन क्या उस क्षणांश से भी छोटी,

    बेहद गहरी यातना में जिसमें हैरत और तकलीफ़ दोनों शामिल रही होगी,

    क्या मेरा बदन छटपटाया होगा,

    क्या मेरी खुली आँखों ने हमेशा के लिए बंद होने के पहले तब तुम्हें खोजा होगा

    माँ जब बनवीर ने मुझे उदय सिंह समझ कर अपनी तलवार का शिकार बना डाला?

    पन्ना धाय, ठीक है कि तब तुम एक साम्राज्य की रक्षा में जुटी थी,

    अपने नमक का फ़र्ज़ और क़र्ज़ अदा कर रही थी

    तुमने ठीक ही समझा कि एक राजकुमार के आगे

    तुम्हारे साधारण से बेटे की जान की कोई क़ीमत नहीं है

    मुझे तुमसे कोई शिकायत भी नहीं है माँ

    लेकिन पाँच सौ साल की दूरी से भी यह सवाल मुझे मथता है कि

    आख़िर फ़ैसले की उस घड़ी में तुमने क्या सोचकर

    अपने बेटे की जगह राजकुमार को बचाने का फ़ैसला किया?

    यह तय है कि तुम्हारे भीतर इतिहास बनने या बनाने की महत्त्वाकांक्षा नहीं रही होगी

    यह भी स्पष्ट है कि तुम्हें राजनीति के दाँव-पेंचों का पहले से पता होता तो

    शायद तुम कुछ पहले राजकुमार को बचाने का कुछ इंतज़ाम कर पातीं

    और शायद मुझे शहीद होना नहीं पड़ता।

    लेकिन क्या यह संशय बिल्कुल निरर्थक है माँ कि उदय सिंह तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यारे रहे होंगे?

    वरना जिस चित्तौड़गढ़ का अतीत, वर्तमान और भविष्य तय करते

    तलवारों की गूँज के बीच तुम्हारी भूमिका सिर्फ़ इतनी थी कि

    एक राजकुमार की ज़रूरतें तुम समय पर पूरी कर दो,

    वहाँ तुमने अपने बेटे को दाँव पर क्यों लगाया?

    या यह पहले भी होता रहा होगा माँ,

    जब तुमने मेरा समय, मेरा दूध, मेरा अधिकार छीन कर बार-बार उदय सिंह को दिया होगा

    और धीरे-धीरे तुम उदय सिंह की माँ हो गई होगी?

    कहीं कहीं इस उम्मीद और आश्वस्ति से लैस कि राजवंश तुम्हें इसके लिए पुरस्कृत करेगा?

    और पन्ना धाय, वाक़ई इतिहास ने तुम्हें पुरस्कृत किया,

    तुम्हारे कीर्तिलेख तुम्हारे त्याग का उल्लेख करते अघाते नहीं

    जबकि उस मासूम बच्चे का ज़िक्र कहीं नहीं मिलता

    जिसे उससे पूछा बिना राजकुमार की वेदी पर सुला दिया गया।

    हो सकता है, मेरी शिकायत से ओछेपन की बू आती हो माँ

    आख़िर अपनी ममता को मारकर एक साम्राज्य की रक्षा के तुम्हारे फ़ैसले पर

    इतिहास अब भी ताली बजाता है और तुम्हें देश और साम्राज्य के प्रति वफा़दारी की

    मिसाल की तरह पेश किया जाता है

    अगर उस एक लम्हे में तुम कमज़ोर पड़ गई होती तो क्या उदय सिंह बचते,

    क्या राणा प्रताप होते और क्या चित्तौड़ का वह गौरवशाली इतिहास होता

    जिसका एक हिस्सा तुम भी हो?

    लेकिन यह सब नहीं होता तो क्या होता माँ?

    हो सकता है चित्तौड़ के इतिहास ने कोई और दिशा ली होती?

    हो सकता है, वर्षों बाद कोई और बनवीर को मारता

    और इतिहास को अपने ढंग से आकार देता?

    हो सकता है, तब जो होता, वह ज़्यादा गौरवपूर्ण होता और नया भी,

    इस लिहाज़ से कहीं ज्यादा मानवीय

    कि उसमें एक मासूम बेख़बर बच्चे का ख़ून शामिल नहीं होता?

    इतिहास का चक्का बहुत बड़ा होता है माँ हम सब इस भ्रम में जीते हैं

    कि उसे अपने ढंग से मोड़ रहे हैं

    लेकिन असल में वह हमें अपने ढंग से मोड़ रहा होता है

    वरना पाँच सौ साल पुराना सामंती वफ़ादारी का चलन

    पाँच हज़ार साल पुरानी उस मनुष्यता पर भारी नहीं पड़ता

    जिसमें एक बच्चा अपनी माँ की गोद को दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह समझता है

    और बिस्तर बदले जाने पर भी सोया रहता है।

    दरअसल, इतिहास ने मुझे मारने से पहले तुम्हें मार डाला माँ

    मैं जानता हूँ जो तलवार मेरे कोमल शरीर में बेरोक-टोक धँसती चली गई,

    उसने पहले तुम्हारा सीना चीर दिया होगा

    और मेरी तरह तुम्हारी भी चीख़ हलक़ में अटक कर रह गई होगी यानी हम दोनों मारे गए,

    बच गया बस उदय सिंह, नए नगर बसाने के लिए, नया इतिहास बनाने के लिए

    बच गई बस पन्ना धाय इतिहास की मूर्ति बनने के लिए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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