स्त्री के साथ

istri ke sath

चंद्रकांत देवताले

चंद्रकांत देवताले

स्त्री के साथ

चंद्रकांत देवताले

और अधिकचंद्रकांत देवताले

    मैं आकाश में इतने ऊपर कभी नहीं उड़ा

    कि स्त्री दिखाई ही दे

    इसलिए मैं उन लोगों के बारे में कुछ नहीं जानता

    कि वे किस तरह सोचते हैं जो ईश्वर के साथ रहते हैं

    वैसे मेरी आत्मा आकाश में बहुत ऊँचे तक उड़ी है

    पर डोर हमेशा किसी स्त्री के हाथ में रही

    और सब जानते हैं कि औरत ज़्यादह ढील नहीं देती

    प्रेम करती हुई औरत के बाद भी अगर कोई दुनिया है

    तो उस वक़्त वह मेरी नहीं है

    उस इलाक़े में मैं साँस तक नहीं ले सकता

    जिसमें औरतों की गंध वर्जित है

    सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से

    नहीं सोचता कभी कोई भी बात ज़ुल्म और ज़्यादती के बारे में

    अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर

    स्त्री के साथ और उसके भीतर रहकर ही मैंने अपने को पहचाना है

    उस अपने को जो हड्डियों और मांस के परे रहता है

    और फिर भी शाकाहारी नहीं है

    और जब वह मेरे लिए अंधड़ की तरह बिफरती है

    तभी मुझे यक़ीन आता है कि मेरे भीतर जलती लौ बुझ नहीं सकती

    क्योंकि औरत आग पर सिर्फ़ रोटियाँ ही नहीं सेंकती

    ख़ुद आग की हिरनी की तरह चौकड़ी भी भरती है

    औरत का आग से रिश्ता बेबात नहीं होता

    मैं ज़हर में डूबकर आऊँ या पराजय में धँसकर

    औरत की आँखें मुझे काँच के गिलास की तरह धोकर पारदर्शी बना देती हैं

    और उसका गुनगुना स्पर्श गिलास को

    नशे वाली चीज़ से भर देता है

    उसकी बग़ल में लेटकर ही मैं भाप और फूलों के बारे में सोच पाता हूँ

    और मुझे लगता है कि मृत्यु मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती

    पारस पत्थर और कल्पवृक्ष के बारे में मैं कुछ नहीं जानता

    मेरी आत्मा झाग के थपेड़ों में नहा नहीं रही है

    मुझे औरत की अँगुलियों के बारे में पता है

    ये अंगुलियाँ समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं

    और एक थके-माँदे पस्त आदमी को

    हरे-भरे गाते दरख़्त में बदल देती हैं

    जिसे तुम त्वचा कहते हो वह नदी का वसंत है

    चाँदनी में बहता हुआ इच्छाओं का झरना

    उसे समय को परे धकेल कर

    जगह को गहराइयों में ले जाना ख़ूब आता है

    फिर भी सिर्फ़ एक औरत को समझने के लिए

    हज़ार साल की ज़िंदगी चाहिए मुझको

    क्योंकि औरत सिर्फ़ भाप या वसंत ही नहीं है

    एक सिंफनी भी है समूचे ब्रह्मांड की

    जिसका दूध दूब पर दौड़ते हुए बच्चों में

    ख़रगोश की तरह कुलाँचे भरता है

    और एक कंदरा भी है किसी अज्ञात इलाक़े में

    जिसमें उसकी शोकमग्न परछाई

    दर्पण पर छाई गर्द को रगड़ती रहती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 110)
    • रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए