इस सदी को

is sadi ko

बसंत त्रिपाठी

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इस सदी को

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    इस सदी को समझने के लिए

    नहीं चाहिए बहुत सिद्धांत

    बहुत रोशनी

    या भाष्य कई-कई

    इसे तो उस अतृप्ति से भी जाना जा सकता है

    जो लगातार

    सबके भीतर जमा हो रही

    ज़मीन में क्षार की तरह

    जीभ पर रखते ही बैंगन की सब्ज़ी

    टीस-सी उठती है

    और याद आता है दस साल पुराना बिछड़ चुका स्वाद

    वह भी इस सदी को समझने का एक पैमाना है

    असुरक्षा जो हर वक़्त

    आशंका की तरह बजती रहती

    संपन्नताएँ जो भय पैदा करतीं

    बात-बेबात झुँझलाना जो बढ़ता ही जाता

    इन सबसे भी पहचानी जा सकती है यह सदी

    धन को बुरी नज़र से बचाने के लिए

    बिक रहे धनरक्षक यंत्रों

    शक्तिवर्धक औषधियों

    फ्रेंडशिप के विज्ञापनों

    और पिज्जाहट की रौनक़ से भी पा सकते हैं इस सदी का हाल

    यह सदी जो मनोवैज्ञानिकों की समृद्धि

    और कुपोषण से ग्रस्त लोगों की वृद्धि का अकल्पनीय द्वैत है

    पीपल के पत्तों की तरह

    काँप रहे हैं ग़रीब-ग़ुरबे

    नीम की पत्तियों की तरह

    झर रहे दिन-रात

    खाद में तब्दील हो रहे रोज़-ब-रोज़

    जिसे चूसकर बढ़ रहे हैं धनकुबेर

    उन पंद्रह करोड़ धनकुबेरों की

    एक अरब लोगों पर बरसती व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट से भी

    जान सकते हैं सदी की चाल

    केवल विकास-दर के बढ़ते ग्राफ से नहीं

    अपहरण, आत्महत्याओं और बलात्कार के तरीक़ों से भी

    यह सदी दर्ज हो रही है इतिहास में

    इतिहास के अंत के भाष्यकारों से नहीं

    इतिहास में शामिल होने

    और उसे बदल डालने की इच्छा से भी

    आप जान सकते हैं इस सदी को

    इतना इतना भरम

    इतनी इतनी जुगत

    बाढ़ की तरह बढ़ आई कुरुचियाँ

    सारा कुछ इर्द-गिर्द,

    जिसका भी चेहरा छुओ

    पानी की एक धार छूटती है

    गर्म और नमकीन

    वह या तो पीड़ित है या चिह्नित

    भरमाने और उलझाने वाले सिद्धांतों से नहीं

    असंतोषों के फूटते सैलाब से भी

    जान सकते हैं इस महान सदी को।

    स्रोत :
    • रचनाकार : बसंत त्रिपाठी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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