क़िबला*

qibla*

रोचक तथ्य

इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

 

माँ कभी मस्जिद नहीं गई 
कम से कम जब से मैं जानता हूँ माँ को 
हालाँकि नमाज़ पढ़ने औरतें मस्जिदें नहीं जाया करतीं हमारे यहाँ 
क्यूँकि मस्जिद ख़ुदा का घर है और सिर्फ़ मर्दों की इबादतगाह  
लेकिन औरतें मिन्नतें-मुरादें माँगने और ताखा भरने मस्जिदें जा सकती थीं 
लेकिन माँ कभी नहीं गई 
शायद उसके पास मन्नत माँगने के लिए भी समय न रहा हो 
या उसकी कोई मन्नत रही ही नहीं कभी 
ये कह पाना मेरे लिए बड़ा मुश्किल है 
यूँ तो माँ नइहर भी कम ही जा पाती 
लेकिन रोज़ देखा है मैंने माँ को 
पौ फटने के बाद से ही देर रात तक 
उस अँधेरे-करियाए रसोईघर में काम करते हुए 
सब कुछ क़रीने से सईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारते हुए 
जहाँ उजाला भी जाने से ख़ासा कतराता था 
माँ का रोज़ रसोईघर में काम करना 
ठीक वैसा ही था जैसे सूरज का रोज़ निकलना 
शायद किसी दिन थका-माँदा सूरज न भी निकलता 
फिर भी माँ रसोईघर में सुबह-सुबह ही हाज़िरी लगाती।

रोज़ धुएँ के बीच अँगीठी-सी दिन-रात जलती थी माँ 
जिस पर पकती थीं गरम रोटियाँ और हमें निवाला नसीब होता
माँ की दुनिया में चिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ 
अख़बार और छुट्टियाँ बिल्कुल नहीं थे 
उसकी दुनिया में चौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरी और जाँता थे 
जूठन से बजबजाती बाल्टी थी 
जली उँगलियाँ थीं, फटी बिवाई थी 
उसकी दुनिया में फूल और इत्र की ख़ुशबू लगभग नदारद थे 
बल्कि उसके पास कभी न सूखने वाला टप्-टप् चूता पसीना था
उसकी तेज़ गंध थी 
जिससे मैं माँ को अक्सर पहचानता। 

ख़ाली वक़्तों में माँ चावल बीनती 
और गीत गुनगुनाती :
“...लेले अईहऽ बालम बजरिया से चुनरी”
और हम, “कुच्छु चाहीं, कुच्छु चाहीं…” रटते रहते 
और माँ डिब्बे टटोलती 
कभी खोवा, कभी गुड़, कभी मलीदा 
कभी मेथऊरा, कभी तिलवा और कभी जनेरे की दरी लाकर देती।

एक दिन चावल बीनते-बीनते माँ की आँखें पथरा गईं 
ज़मीन पर देर तक काम करते-करते उसके पाँव में गठिया हो गया  
माँ फिर भी एक टाँग पर खटती रही
बहनों की रोज़ बढ़ती उम्र से हलकान 
दिन में पाँच बार सिर पटकती ख़ुदा के सामने।

माँ के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा? 
मेरी माँ का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यूँ है? 
माँ के श्रम की क़ीमत कब मिलेगी आख़िर इस दुनिया में? 
मेरी माँ की उम्र क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन वापिस कर सकता है? 
मेरी माँ के खोए स्वप्न क्या कोई उसकी आँख में 
ठीक उसी जगह फिर रख सकता है जहाँ वे थे? 

माँ यूँ तो कभी मक्का नहीं गई 
वह जाना चाहती थी भी या नहीं 
ये कभी मैं पूछ नहीं सका 
लेकिन मैं इतना भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि 
माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं 
रसोईघर में था...

___________________________

*क़िबला : इस्लामी आस्था का केंद्र तथा नमाज़ की दिशा का सूचक; एक इमारत है, जो मक्के में स्थित है।

स्रोत :
  • रचनाकार : अदनान कफ़ील दरवेश
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए