हूल की हत्या

hool ki hattya

जसिंता केरकेट्टा

जसिंता केरकेट्टा

हूल की हत्या

जसिंता केरकेट्टा

और अधिकजसिंता केरकेट्टा

    हाँ मैं वही गाछ हूँ

    पंचकठिया-बरहेट के क्रांति स्थल का।

    वक़्त की अदालत में खड़ा,

    एक जीवित गवाह

    जो पहचानता है

    हूल के हत्यारों के चेहरे।

    मैं छूता हूँ अपने कंधे के दाग़

    उस रस्सी की रगड़ से उभरे

    जिसके फंदे से

    लटका दिया गया था

    सन् 1855 का प्रतिरोध

    झूल गई थी जिस पर

    संताल हूल के अगुआ सिदो की

    शोषण के ख़िलाफ़ युद्धरत आत्मा।

    उसकी देह से अंतिम बार निकली

    पसीने की गंध

    कुचले हूल की सिर उठाती गंध बन

    बह रही जंगल की शिराओं में

    पारे की तरह आज भी।

    उसके छटपटाते पैर के अँगूठे

    टकराए थे मेरे सीने से,

    ठीक वहीं जहाँ मेरा कलेजा धड़कता है।

    वहीं से आज भी रिसता है ख़ून

    हूल-हूल पुकारता हुआ।

    उस पुकार पर

    जंगलों के सीने में धँसी

    स्मृतियों की छुरियों की धार

    व्याकुल हो उठती है,

    काट डालने को सारी बाँबियाँ

    निहत्थों की देह

    चाट जाने वाले दीमकों की

    और मचलती हैं तोड़ डालने को

    हत्यारों की उम्र पर

    चढ़ाए गए सारे कवच।

    हाँ, मेरी ही बूढ़ी बाँहें

    जिस पर झूलकर

    जवान होती थीं पीढ़ियाँ

    मेरी बाँहों का लेकर सहारा

    वीर सपूतों को साज़िशों ने

    मौत के घाट है उतारा।

    मैं खड़ा हूँ ठीक वहीं आज भी

    दफ़ना दिए गए

    वक़्त की क़ब्र पर

    एक जीवित सबूत बनकर,

    एक लौ बन सच्चाई की

    जो जगाए रखता है

    इतिहास को नींद में भी।

    वक़्त की अदालत पूछती है मुझसे

    हूल के हत्यारों के चेहरे कैसे थे?

    तब मैं चीख़कर कहता हूँ

    हर काल में हैं

    उनके चेहरे कुछ एक से...

    निर्दयता की पराकाष्ठा से रंजित माथे

    हवस की सीमाएँ लाँघती हुईं आँखें

    जीवन रस चूसने वाली नरभक्षी उँगलियाँ,

    पृथ्वी की पोटली काँख में छिपाकर

    “और...और...” की तलाश में भटकती

    ब्रह्मांड की सबसे भूखी आकृतियाँ...

    यह सुनते ही अदालत

    उठ खड़ी होती है

    और स्वयं को स्थगित कर

    बढ़ जाती है जाने

    किस अनिश्चतकाल की ओर...

    स्रोत :
    • रचनाकार : जसिंता केरकेट्टा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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