होटल

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मंगलेश डबराल

और अधिकमंगलेश डबराल

    जिन होटलों में मैं रहा उन्हें समझना कठिन था

    हालाँकि लोग उनमें एक जैसी मुद्रा में इस तरह प्रवेश करते थे

    जैसे अपने घर का क़ब्ज़ा लेने जा रहे हों

    और मालिकाने के दस्तावेज़ उनके ब्रीफ़केस में रखे हुए हों

    लेकिन मेरे लिए यह भी समझना आसान नहीं था

    कि कौन-सी रोशनी कहाँ से जलती है और कैसे बुझती है

    और कई लैंप इतने पेचीदा थे कि उन्हें जलाना

    एक पहेली को हल करने जैसी ख़ुशी देता था

    बाथरूम में नल सुंदर फंदों की तरह लटकते थे

    और किस नल को किधर घुमाने से ठंडा

    और किधर घुमाने से गर्म पानी आता था या नहीं आता था

    यह जानने में मेरी पूरी उम्र निकल सकती थी

    बिस्तर नींद से ज़्यादा अठखेलियों के लिए बना था

    और उस पर तकियों का एक बीहड़ स्वप्निल संसार

    फ़िलहाल आराम कर रहा था

    यही वह जगह है मैंने सोचा

    जहाँ लेखकों ने भारी-भरकम उपन्यास लिखे

    जिन्हें वे अपने घरों के कोलाहल में नहीं लिख पाए

    कवियों ने काव्य रचे जो बाद में पुरस्कृत हुए

    यहीं कुछ भले लोगों ने प्रेम और ताक़तवरों ने बलात्कार किए

    बहुत से चुबंन और वीर्य के निशान यहाँ सो रहे होंगे

    एक दोस्त कहता था सारे होटल एक जैसे हैं

    बल्कि दुनिया जितना विशालकाय एक ही होटल है कहीं

    जिसके हज़ारों-हज़ार हिस्से जगह-जगह जमा दिए गए हैं

    और वह आदमी भी एक ही है

    जिसके लाखों-लाख हिस्से यहाँ प्रवेश करते रहते हैं

    सिर्फ़ उसके नाम अलग-अलग हैं

    आख़िरकार मेरी नींद को एक जगह नसीब हुई

    जो एक छोटे से होटल जैसी थी जिसका कोई नाम नहीं था

    एक बिस्तर था जिस पर शायद वर्षों से कोई सोया नहीं था

    एक बल्ब लटकता था एक बाथरूम था

    जिसके नल में पानी कभी आता था कभी नहीं आता था

    जब मैंने पूछा क्या गर्म पानी मिल सकता है नहाने के लिए

    तो कुछ देर बाद एक ख़ामोश-सा लड़का आया

    एक पुरानी लोहे की बाल्टी लिए हुए

    और इशारा करके चला गया।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मंगलेश डबराल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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