ज़रा-सी अनपढ़ता और बहुत सारी बेवकूफ़ी के लिए

zara si anapaDhta aur bahut sari bewakufi ke liye

गौरव सोलंकी

गौरव सोलंकी

ज़रा-सी अनपढ़ता और बहुत सारी बेवकूफ़ी के लिए

गौरव सोलंकी

और अधिकगौरव सोलंकी

    घाघ आदमियों के बीच

    पेड़ थे सब लड़के

    और यह फ़ानूस, मोमबत्ती या आग के भी जन्म से

    बहुत पहले की बात है

    जब पंख वाले बारिशी कीड़े

    फड़फड़ाते थे सूरज की ओर चेहरा करके

    और किसी साधारण शाम में,

    जब अपनी उम्र और माँओं पर थोड़ा तरस खाकर

    हम सबको साथियों,

    हो जाना चाहिए था थोड़ा-सा रूमानी,

    हम बिगड़े हुए स्कूटरों की तरह

    घर की नीलामी के वक़्त भी

    सबसे बेकार की चीज़ थे,

    सबसे उदास भी बेकार में ही।

    समुद्र उठता है

    मेरी छाती की जमीन में,

    बाघ कपड़े पहनकर

    निकलते हैं शिकार पर,

    बेघर और अनाथ समय

    बदहवास-सा दौड़ता है बेवजह,

    हर दिशा से बढ़ा आता है

    हत्यारों का हुजूम।

    जब शुरू किया हमने

    तो चौथी कक्षा की किताब की

    बकरी की एक कोमल कहानी के बारे में सोचा था,

    जब ख़त्म करेंगे तो

    धड़ाधड़ गोलियाँ और नंगे शरीर होंगे निश्चित ही।

    मगर फिर भी हे ईश्वर!

    ज़रा-सी अनपढ़ता और बहुत सारी बेवक़ूफ़ी

    हमेशा बची रहे हममें,

    बहुत-सी चीज़ें और चित्र हों

    जो कभी समझ में आएँ।

    स्वतंत्र रहने की हमारी ज़िद्दी अमर चाहत के बावजूद

    ऐसे लोग हों ज़रूर,

    जो बार-बार टोकते हों,

    बताते हों सही ग़लत,

    ऐसी फ़िल्में रहें हमेशा,

    जिन्हें छिपकर कम वॉल्यूम में देखना पड़े,

    एक करोड़वीं बार भी तुम्हें चूमूँ

    तो लाल हों गाल,

    नाख़ून कुतरते रहें परेशानियों में,

    खाने के वक़्त भी हिलाते रहें पैर।

    बेवजह उदास नहीं रहता कोई।

    घरों के आख़िरी कोनों

    या पुराने स्कूलों को खोदकर देखो,

    खोलो पलंग की चादरों की आख़िरी तह।

    शहर को एक बार जलाकर देखो नंगा,

    घर की रोटियों में ढूँढ़ो काँच।

    चिट्ठियाँ जहाँ ख़त्म होती हैं,

    वे मृत्यु के अक्षर होते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सौ साल फ़िदा (पृष्ठ 13)
    • रचनाकार : गौरव सोलंकी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2012

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