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आलोक कुमार मिश्रा

और अधिकआलोक कुमार मिश्रा

    मैं चट्टान पर पैर रखता हूँ तो

    मुझे उसका दबा हृदय धड़कते हुए सुनाई देता है

    और उछलकर पैर हटा लेता हूँ

    तारों को देखता हूँ तो मेरे पुरखों और पुरखिनियों की

    चमकती आँखें वात्सल्य से डबडबाई हुई दीखती हैं मुझे

    और मैं नितांत शांत हो अपनी आँखें मूँद लेता हूँ

    मैं फूलों के पास जाता हूँ

    तो तहज़ीब मेरे हाथ बाँध देती है

    मैं उसे हाथ में लिए नहीं ख़ुद में समेटे

    महसूस करता हुआ घर वापस आता हूँ

    मैं नदी से जब-जब मिलता हूँ

    उसे मछलियों का दान देता हूँ

    जितना मुझे नदी का जल चाहिए

    नदी को उतनी ही मछलियाँ भी

    नदी में मैं ही नहीं डुबकी लगाता

    नदी भी उफनती है मुझमें

    पेड़ के पास पहुँचकर

    मेरा मन उसकी जड़ों को सहलाने का होता है

    आख़िर दादी के आशीष की तरह

    इसकी छाया भी तो उत्तम है

    दो पैरों, दो हाथों, मस्तिष्क

    और जीवन से भरे इंसानों को देखकर

    स्वयं को इतना विस्तारित मानने लगता हूँ कि

    हर ओर ख़ुद को देख पाता हूँ

    इतने अपनेपन में

    मुझसे कुछ भिन्न होना भी खलता नहीं मुझे

    बल्कि मैं चौंकता हूँ खुद में बैठे हुए

    कि इतनी अभिव्यक्तियाँ महसूस करके

    प्रेम के प्रकाश में डूबा हुआ

    यह ब्रह्मांड मुझे प्यारा है

    और आपको?

    स्रोत :
    • रचनाकार : आलोक कुमार मिश्रा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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