ग्रामोफ़ोन का पुराना रेकार्ड

gramophone ka purana record

यतींद्र मिश्र

यतींद्र मिश्र

ग्रामोफ़ोन का पुराना रेकार्ड

यतींद्र मिश्र

और अधिकयतींद्र मिश्र

    इसमें बंद है वह पुराना समय जिसे ग्रामोफ़ोन पर सुनते हुए

    हम याद कर सकते हैं

    अठहत्तर आर.पी.एम. का यह रेकार्ड

    पड़ा मिला जिस पुराने बक्से में

    अब तक का इतना भर इतिहास था उसके बारे में

    दादा की मिरज़ई कुछ पुराने ढब के कपड़े रहते थे उसमें

    मगर मिल सकता है वहाँ

    किसी की पुरअसर आवाज़ का दस्तावेज़

    इसे कोई नहीं जानता था घर में

    अब जबकि यह गोल जादुई-सा तवा हाथ आया हमारे

    इसके सहारे इतिहास के गलियारों में झाँक सकते हैं हम

    ठहरते हैं थोड़ी देर सन् उन्नीस सौ दस या बीस

    या कुछ उस तरह के सालों के दरमियान गुजरते हुए

    जब इन अजीबोग़रीब तवों की सतह पर दर्ज़ हुई थी

    पहली बार कभी आवाज़ तो कभी समय की लय

    और इस कोशिश में इस निहायत ग़ैर दुनियादार समाज को

    पता चला था एकाएक पहली बार बेहद मामूली चीज़ों के बीच से

    पैदा होने वाली चमक के बारे में

    जैसे पहली बार वे यह जान पाए थे

    कि लैला-मजनू या सलीम-अनारकली के अफ़सानों की तरह

    दर्ज हो सकती हैं उनकी भी साधारण ज़रूरतों की दिलचस्प दुनिया

    कि गाहे-बगाहे वे भी देख सकते थे इनमें

    अपनी आवाज़ का आईना

    आजकल अपने वजूद में अनूठे-से लगते

    इन रेकार्डों का कोई मतलब नहीं रहा हमारे लिए

    क्योंकि इन्हें सुन सकने का कोई तरीक़ा अब हम नहीं पाते

    इनके तिलिस्म को तोड़ने वाले बाजे अब दुकानों में नहीं आते

    मगर इतना ज़रूर है कि

    किसी लुप्तप्राय प्राचीन लिपि के नमूनों की तरह लगते यह तवे

    हमारे अपनों के, भुला-बिसरा दिए गए स्वजनों के ब्यौरे हैं

    इन्हें बूझ पाना हातिमताई के सात सवालों को हल करना है

    बूझ पाने की शक्ल में इनके आयतन में उतरकर भाँपना

    हो सकता है इनमें भरा हो इतना दुख

    बुल्ले या वारिसशाह की बनाई हीर जितनी तड़प भी कम लगे इसे सुनकर

    फिर दुख भी यहाँ इतना प्राचीन होगा

    बहुत सारी नदियों का पानी बह जाएगा उसमें यक-ब-यक

    और नावें चलेंगी दूर तक जिन्हें बनाया होगा

    प्रेम में धोखा खाई उन औरतों ने

    जो बरसों से रोना भूल चुकी होंगी

    इसमें अगर कोई रोशनी का पता ढूँढ़ना चाहेगा

    तो लौटेगा ख़ाली हाथ इससे होकर, जैसे युद्ध में

    सब कुछ हारकर लौटते हैं सैनिक शिविरों में

    जैसे बरसों तक रीते हाथ लौटती रहीं

    लाहौर स्यालकोट की कंजरियाँ

    महफ़िलों से अपनी उठावनी के बाद

    बिसूरते हुए अपने कंजरी होने का हुनर

    और इन सबसे अलग बचेगी आख़िर में जब कभी

    इन अनूठे तवों की तारीख़ी दुनिया

    तो अक्सर गाने के बाद बिल्कुल अंत में

    आएगी एक नीमख़ुशहाल आवाज़

    अपनी पहचान की काँपती-सी शिनाख़्त कराती

    मैं जानकी बाई छप्पनछुरी....

    मैं अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी...

    मैं अनवर बाई लखनवी...

    इस तरह एक दास्ताँ शुरू होगी

    जब हम इसे पुराने ग्रामोफ़ोन पर बजाएँगे

    इस तरह एक शाहकार का तिलिस्म टूटेगा

    जिस इबारत को आज के हुनरमंद पढ़ नहीं पाएँगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : यतींद्र मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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