कल्पना के पुत्र हे भगवान

kalpana ke putr he bhagwan

नागार्जुन

नागार्जुन

कल्पना के पुत्र हे भगवान

नागार्जुन

और अधिकनागार्जुन

    कल्पना के पुत्र हे भगवान

    चाहिए मुझको नहीं वरदान

    दे सको तो दो मुझे अभिशाप

    प्रिय मुझे है जलन, प्रिय संताप

    चाहिए मुझको नहीं यह शांति

    चाहिए संदेह, उलझन, भ्रांति

    रहूँ मैं दिन-रात ही बेचैन

    आग बरसाते रहें ये नैन

    करूँ मैं उद्दंडता के काम

    लूँ भ्रम से भी तुम्हारा नाम

    करूँ जो कुछ, सो निडर, निश्शंक

    हो नहीं यमदूत का आतंक

    घोर अपराधी-सदृश हो नत बदन निर्वाक

    बाप-दादों की तरह रगड़ूँ मैं निज नाक—

    मंदिरों की देहली पर पकड़ दोनों कान

    हे हमारी कल्पना के पुत्र, हे भगवान,

    युगों से अराधना की, गए अब तंग

    —झाल और मृदंग

    शंख करता रहा था युगों से आक्रंद

    तुम पिघले, पड़ गई आवाज़ उसकी मंद

    अब तक सुलझे तुम्हारे बाल

    थक गईं लाखों उँगलियाँ, हो गया अतिकाल

    अँधेरे में रहे लोग टटोल—

    ठोस हो या पोल?

    हो गए नीरस तुम्हारी चिंतना में—

    व्यस्त होकर तर्क औ’ अनुमान

    हे हमारी कल्पना के पुत्र, हे भगवान!

    परिधि यह संकीर्ण, इसमें ले सकते साँस

    गले को जकड़े हुए हैं यम-नियम के फाँस

    —पुराने आचार और विचार

    गगन में नीहारिकाओं को करने दे रहे

    अभिसार

    छोड़कर प्रासाद खोजूँ खोह—

    कह रहा है पूर्वजों का मोह

    ज़ोर देकर कह रहे ये वेद और पुरान

    मूल से चिपटे रहो नादान

    बनूँ मैं सज्जन, सुशील विनीत

    हार को समझा करूँ मैं जीत

    क्रोध का अक्रोध से कर अंत

    बनूँ मैं आदर्श मानव संत

    रह जाए उष्णता कुछ रक्त में अवशिष्ट

    गुरुजनों को भी यही था इष्ट

    सड़ गई है आँत

    पर दिखाए जा रहे हैं दाँत

    छोड़कर संकोच, तजकर लाज

    दे रहा है गालियाँ यह जीर्ण-शीर्ण समाज

    खोलकर बंधन, मिटाकर नियति के आलेख

    लिया मैंने मुक्ति पथ को देख

    नदी कर ली पार, उसके बाद

    नाव को लेता चलूँ पीठ पर मैं लाद

    सामने फैला पड़ा शतरंज-सा संसार

    स्वप्न में भी मैं इसको समझता निरस्सार

    इसी में भव, इसी में निर्वाण

    इसी में तन-मन, इसी में प्राण

    यहीं जड़-जंगम सचेतन औ’ अचेतन जंतु

    यहीं ‘हाँ,’ ‘ना’, ‘किंतु’ और ‘परंतु’

    यहीं है सुख-दुःख का अवबोध

    यहीं हर्ष-विषाद, चिंता-क्रोध

    यहीं है संभावना, अनुमान

    यहीं स्मृति-विस्मृति सभी का स्थान

    छोड़कर इसको कहाँ निस्तार

    छोड़कर इसको कहाँ उद्धार

    स्वजन-परिजन, इष्ट-मित्र, पड़ोसियों की याद

    रहे आती, तुम रहो यों ही वितंडावाद

    मूँद आँखें शून्य का ही करूँ मैं तो ध्यान?

    कल्पना के पुत्र हे भगवान!

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 19)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : नागार्जुन
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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