घर छोड़ने के बाद

ghar chhoDne ke baad

संजीव गुप्त

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घर छोड़ने के बाद

संजीव गुप्त

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    एक

    माँ खड़ी हैं दरवाज़े पर
    और निहार रही हैं अपलक
    चेहरे पर ओढ़ रखी है उन्होंने
    एक झीनी-सी मुस्कुराहट
    एक परदे की तरह
    भीतर है जिसके अपार दुख
    उन दुखों की गूँज
    मँडरा रही है उनकी आँखों मे

    पिता का चेहरा सपाट है
    कुछ है उनके भीतर
    जिसे वे रोकते है बार-बार
    किसी को दुख न हो ज़रा भी
    इसलिए कर रहे हैं कोशिशें
    एक कातर मुस्कान को
    चेहरे पर चिपकाने की

    एक बेतरतीब से वक़्त में
    मै समझ नहीं पाता
    कैसे गिर पड़ा मुझ पर
    विदा का पहाड़

    मै छोड़ता हूँ घर
    मुझे नहीं मालूम
    अब घर कब लौटना होगा
    और न जाने किस तरह की
    व्यूह रचना करनी होगी
    एक अनजानी दुनिया में
    अपने ही घर लौटने के लिए

    घर के संगीत से निकलकर
    मै ख़ुद को एक कोलाहल में घिरा पाता हूँ
    कोई फुसफुसाता है कान में
    कि छूटता जा रहा है सब कुछ
    सब कुछ

    फुसफुसाहटें बढ़ती जाती हैं लगातार
    बदल जाती हैं एक गहरे शोर में

    मै अपने कान बंद कर लेता हूँ
    मींच लेता हूँ अपनी आँखें
    सोचता हूँ फिर भी
    कैसे बच पाऊँगा
    इस कोलाहल से

    दो

    छूट जाता है सब कुछ वहीं
    कि घर छूटता है
    लेकिन उसका मोह नहीं

    घर की महक
    भटकती रह्ती है आस-पास
    लगातार

    हम तलाशते हैं रास्ते
    तय करते है सफ़र
    लेकिन कोई होता है भीतर
    जो लौट जाना चाहता है घर की ओर

    हमें मालूम है
    सारे रास्ते तय करने के बाद
    हमारे चेहरे घर की तरफ़ ही होंगे

    लेकिन तब
    क्या घर होगा वहाँ

    उसी तरह

    तीन

    कोलाहल से बचने के लिए
    भागता हूँ
    एकांत की ओर

    बच नही पाता कोलाहल से

    बेबस सुनता हूँ
    अपने एकांत में

    एक कोलाहल

      
    स्रोत :
    • रचनाकार : संजीव गुप्त
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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