गपोड़ी

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संजय कुंदन

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गपोड़ी

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    वे कहीं से भी हो जाते शुरू

    बिना दस्तक दिए

    घुस आते हमारे जीवन में

    बस एक छोटा बहाना चाहिए

    एक मामूली-सी बात बन सकती है उद्गम

    उनके क़िस्सों की नदियों का

    धुएँ के छल्ले की तरह

    वे लहराते शब्द हवा में

    फिर झरने की तरह फूटती उनकी हँसी

    सोंधी-सोंधी

    सैलून में एक नाई

    दाढ़ी बनाता हुआ

    अचानक ही डुबोने लगता

    दाढ़ियों के अथाह प्रसंगों में

    लगता जैसे हम दाढ़ियों के जंगल में चले आए हों

    जहाँ साथ चल रही हो

    सुगंधित झाग की एक तेज़ धारा

    थोड़ी देर बाद वह दाढ़ी के जंगल से

    हमें बाहर ले आता

    फिर ले चलता एक नए क़िस्से में

    हमें लगता वह नाई नहीं कथावाचक है

    एक दिन ट्रेन में

    अपनी मुस्कराहट फेंकता एक आदमी

    याचना करता थोड़ी जगह की

    फिर निकल पड़ता गप्प का सिलसिला

    बात सिरदर्द से शुरू होती

    भाँति-भाँति की देसी दवाओं की चर्चा में लीन वह

    थोड़ी देर के लिए एक साधक दिखाई देता

    फिर डर लगने लगता

    कहीं वह झोला छाप डॉक्टर हो

    इसी तरह मिलते रहते अक्सर

    कहीं कहीं गपोड़ी लोग

    कई बार बड़े घाघ लगते वे

    फिर काहिल डरपोक भी

    कि बस गप्प में ही हासिल कर लेना चाहते हों

    वे दुनिया भर की दौलत

    गप्प में ही जीत लेना चाहते हों हर बाज़ी

    उनकी बातों से लगता

    जीवन में वही सब कुछ है प्रमाणिक

    जिन पर लगी है उनकी आत्मा की मुहर

    वे इतिहास को इस तरह करते ख़ारिज

    कि क्रोध आता उनके अज्ञान पर

    राजनीति पर जब वे मज़ेदार टिप्पणियाँ करते

    लगता जैसे कोई प्लेटो की नाक पकड़-पकड़कर हिला रहा हो

    और चाणक्य की चुटिया

    लगाम की तरह खींच रहा हो

    वे एक क्षण में पतंग की तरह

    तैर रहे होते आकाश में

    अगले ही क्षण दुबक जाते घोंसले में

    चिड़िया के बच्चे की तरह चहकते

    एक मामूली-सी बात पर

    अपनी ही बातों पर उनका कोई वश नहीं

    उनकी निर्मल देह से अपने आप ही फूटती हैं गप्प

    हरी लत्तियों की तरह पसरते जाते

    करते अपना विस्तार

    वे एक अकुशल कारीगर हैं

    वे नहीं जानते अपने गप्प को ढाल लेना साँचे में

    वे नहीं बदल पाते अपनी हँसी को एक उत्पाद में

    वे मुक्त हस्त बाँटते रहते हँसी

    इसलिए डरता है उनसे टकसाल का मालिक

    जो ढालना चाहता है सिक्कों की तरह

    हँसी को भी

    आतंकित रहते वे

    जिनके हाथों में चमकता है राजदंड

    अब भी उनका शासन वैध नहीं

    उन्हें नहीं दी अब तक गपोड़ियों ने अपनी मान्यता

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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