सगरमाथा के रास्ते

sagarmatha ke raste

संजय चतुर्वेदी

संजय चतुर्वेदी

सगरमाथा के रास्ते

संजय चतुर्वेदी

और अधिकसंजय चतुर्वेदी

    जा रहे हैं लुक-ला से नामचे बाज़ार

    दूध कोशी के किनारे-किनारे

    रास्ते में मिलते हैं लाक्पा नोरबू

    चलते हैं साथ-साथ घंटियाँ बजाते शर्मीले याक

    पहुँचाते ज़ुरूरत का सामान दूर-दराज़

    लादे अपने से ज़्यादा वज़न

    नोरबू की मार्फ़त सैलानियों के लिए

    कपड़े टेंट खाना

    औज़ार ऑक्सीजन पेट्रोलियम-गैस

    धीमे-धीमे बढ़ते सगरमाथा की तरफ़

    अगल-बग़ल उलटे लटके हैं

    पैरों से बँधे ज़िंदा मुर्ग़े

    सब्ज़ियों के साथ

    एक पकड़ रखा है नोरबू ने

    वैसे ही उल्टा लटकाकर

    पीछे वज़नी पिट्ठू में रखी

    शराब की बोतलें टकराकर टूटती हैं

    याक आगे निकल जाते हैं

    रुक जाता है नोरबू

    ठीक करने को पिठ्ठू

    पत्थर पर पड़ा पैर बँधा मुर्ग़ा

    देखता है पहाड़ों को

    नीम बेहोश

    चाय पीता है

    उठ के चलता है नोरबू

    इंतज़ार करते होंगे सैलानी

    जाते-जाते मुर्ग़ा पलट के देखता है

    मदद करो!

    भूल जाता है मुर्ग़ा

    मैं भी हूँ नोरबू की ही बिरादरी का

    दुनियाँ के सबसे क़ातिल जानवर ने

    अहिंसा के झंडे गाड़ रखे हैं दूर-दराज़

    धर्मचक्र घुमाते भिक्षु

    बैठे हैं गोम्पा के सामने

    सरल मुस्कुराहट चमकती है इंसान के चेहरे पर

    और आस-पास

    मुर्ग़ा देखता है भिक्षुओं को

    मदद करो!

    बादल छा जाते हैं आसमान पर

    ठंड भीषण हो जाती है

    दो-एक ख़तरनाक से पुल आते हैं

    रास्तों को दाएँ-बाएँ नदी पार कराते

    बड़ी देर बाद मिलता है नोरबू

    सुस्ताता हुआ

    जाता है पेशाब करने

    मैं देखता हूँ मुर्ग़े को

    शायद मर चुका है

    खोल देता हूँ उसके पैर

    अचानक वह भागता है नदी की तरफ़

    बौखलाहट में अपने बाल नोचता है नोरबू

    तड़पता है मुर्ग़े की तरह

    चुप हो जाता है

    घूर के देखता है मुझे थोड़ी देर

    (इससे छोटा नहीं हो जाएगा शोषण का युग)

    उदास नोरबू चलता है आगे-आगे

    उसे जल्दी है

    कुछ लोग उसका इंतज़ार करते होंगे

    उसे भी लटका रखा है कुछ लोगों ने

    मुर्ग़े की तरह

    धीरे से बड़बड़ाता है कुछ

    सोचता है मुर्ग़े के बारे में

    बड़े होकर उसके बच्चे भी बनेंगे

    उसी की तरह

    अँधेरा होने तक पहुँचते हैं पड़ाव पर

    याकों से सामान कब का उतारा जा चुका है

    खाने को सजे हैं पके हुए मुर्ग़े

    पहाड़ों की चोटियाँ चमकती हैं शाम को

    देखती हैं शान से महत्वाकाँक्षी आँखें

    अब तक शायद मर भी चुका हो

    नदी किनारे लड़खड़ाता आज़ाद मुर्ग़ा

    रात उसकी आवाज़ आती है पहाड़ की छोटी से

    धीमे-धीमे कराहते हैं थके हुए याक

    घंटियाँ बजती हैं उनकी गर्दनों में ज़ंजीरों की

    सपने में अपने बच्चों का भविष्य देखता है नोरबू

    मदद करो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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