एकदम अपने बुख़ार में

ekdam apne bukhar mein

चंद्रकांत देवताले

चंद्रकांत देवताले

एकदम अपने बुख़ार में

चंद्रकांत देवताले

और अधिकचंद्रकांत देवताले

    जब इंदौर में होता हूँ

    शुभचिंतक बता देते हैं कि उज्जैन गया हूँ

    और उज्जैन में होने पर वहाँ के मेरे दुश्मन पता देते हैं इंदौर का

    इस तरह मैं कइयों के वास्ते कहीं नहीं होता

    और कभी-कभी मैं भी जहाँ होता हूँ नहीं होता

    कुछ लोग वे की वे ही बातें करने के लिए इकट्ठे होते हैं

    या मानते हैं अपनी जीवित मातृभाषा के दिन महीने सप्ताह

    तब मुझे बुख़ार ही जाता है

    आयोजनों के हास्यास्पद दौर में

    कुछ मसख़रे हर दिन संस्कृति करते रहते हैं

    साहित्य इत्यादि भी करते रहते हैं

    और उन्हें जिन्हें फ़रिश्ता मानते हैं उनके भेजे में

    प्रवेश करते भेड़ियों के बारे में कोई बात नहीं करता

    ज़िंदगी के साथ हो रही कारगुज़ारियाँ नेपथ्य में सिसकती रहती हैं

    किसी भी सफ़े पर कहीं भी कोने में

    अपना फ़ोटू या नाम ढूँढ़ने वाले बड़ी भोर जाग जाते हैं

    और इंतज़ार करते हैं पहले अख़बार फिर टेलीफ़ोन की घंटियों का

    मैं अख़बार दोपहर में पढ़ता हूँ खा-पी चुकने के बाद

    ऐन सोने के पहले ऐसी वारदातों वाले हिस्से से

    सावधानीपूर्वक बचता हूँ

    उपदेशकों के पास शब्दों का भयानक ज़ख़ीरा है

    और वे मोक्ष और मुक्ति के सैकड़ों रास्ते

    बेहद आसानी से बताते हैं

    जिनमें कहीं नहीं होती मरते-खपते लोगों की दिनचर्या

    ऐसा नहीं है कि शब्द मर चुके हैं

    और कविताओं में नहीं मानवीय पीड़ा की चकाचौंध

    पर असल चीज़ के लिए तड़पने वाले बहुत कम हैं

    भीतर के वसंत के साथ जैसे कम हैं गाने वाले

    मौत से जूझ रहे लोगों की बातें भी यदि

    सम्मानित होने के लिए की जाने लगें

    और इस उजाड़ में मंत्रियों बेवक़ूफ़ शिक्षाशास्त्रियों आदि को

    कुछ फ़ायदे या फ़क़त जश्न के लिए

    अध्यक्ष और फीता काटने वाला वग़ैरह बना दिया जाए

    और साथियो! कोई भी इसकी निंदा करे

    तो क्या हम लोग अपने को

    मुर्दे से अधिक मरा हुआ नहीं समझेंगे

    कुछ इसी तरह की दिक़्क़तें हैं

    जिनके कारण मैं हमेशा किसी दूसरे शहर में होता हूँ या बीमार

    क्योंकि जानता हूँ

    मुझसे उम्मीद करने वाले निराश ही होंगे

    इसीलिए मैं अपनी खिड़की से देखता रहता हूँ

    उड़ते हुए कौवों को कभी-कभी उनकी गिनती करता हूँ और सोचता हूँ

    वे सदी के अवसान को किस तरह देख रहे हैं

    वैसे अपने यहाँ मृतकों को सम्मान के साथ याद करने का

    पखवाड़ा भी होता है

    जीते जी उनके साथ क्या-क्या किया गया?

    यह याद करना क़तई आवश्यक नहीं होता

    अंत्येष्टि धूम-धड़ाके से होती है

    और मसानों को साफ़-सुथरा आध्यात्मिक शांति और महक वाला

    स्थान बनाने का अभियान ख़त्म नहीं होता

    यहाँ यह कहने से कोई भी बाज़ क्यूँ आएगा

    कि करोड़ों लोगों के लिए संडास जैसी चीज़ नहीं है

    वे भिनभिनाती मक्खियों के बीच जीमते हैं

    उन्हें इस दुश्चक्र से निकालने के लिए

    जो लोग आगे आते हैं वे दूसरे बड़े

    काँजीहॉउस जैसे बाड़े में फँसा देते हैं

    हर शहर और गाँव के चौराहों पर

    दिखाई देने वाले नगाड़े रखे हुए हैं

    जब तक पंत पेशवा या उन जैसे आते हैं

    वे बजते हैं पूरी ताक़त से बजाए जाते हैं

    इनसे तरह-तरह की आवाज़ें निकलती हैं

    मुझे तो ज़िबह होते पशुओं का आर्त्तनाद सुनाई पड़ता है

    पर दूसरे दिन अख़बार बताते हैं

    इन आवाज़ों का मतलब दूसरा ही

    कि हम आज़ाद हैं आज़ाद हैं हम

    और दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती हैं

    मैं जहाँ नहीं होता वहाँ भी ऐसे नगाड़ों के ख़िलाफ़

    तूती कहो या ख़तरे की घंटी की तरह बजने की कोशिश करता रहता हूँ

    आकाशगंगा अपनी जगह सलामत रहे

    मैं इस वक़्त इंदौर में नहीं

    अनंत के केश-विन्यास में व्यस्त असाधारण लोगों

    अमरता मुबारक हो मैं उज्जैन में भी नहीं

    विचार के लिए विचार करने वाले पंडितो

    पोथियों मोटे चश्मों के साथ मस्त रहो

    मैं बुख़ार में हूँ एकदम अपने बुख़ार में

    और हूँ उसी जगह जहाँ मुझे होना चाहिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 220)
    • रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

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