सपने और तितलियाँ

sapne aur titliyan

सविता सिंह

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सपने और तितलियाँ

सविता सिंह

और अधिकसविता सिंह

    एक लंबे सपने का यह छोटा हिस्सा है

    इसमें मैं बेदम भाग रही हैं

    देखती हूँ एक घने जंगल में हूँ

    पेड़ों पत्तों के बीच उन्हीं की तरह आश्वस्त

    जंगल के जीवों के बीच निर्भय

    उनके प्रलापों से अवगत

    इधर-उधर घूमती पास की नदी तक जाती

    बैठती किसी पुराने पत्थर पर

    तभी आता है कोई घोड़े पर सवार

    पास उतरता है मेरे

    फिर कहता है ढूँढ़ता रहा है वह कई जन्मों से मुझे

    कि मेरे पास उसके कुछ फल और नदियाँ हैं

    कि वह भूखा और प्यासा है

    पीने आया है अपने हिस्से का जल मुझमें

    मैं हतप्रभ हूँ

    वह नितांत अपरिचित

    उसके चेहरे पर कोई कोमलता नहीं

    समीप आने पर चेचक के दाग़ दिखते हैं उस पर

    आँखों में कठोर प्रतिज्ञा मुझे पाने की

    मुझे घबराया देख वह और दृढ़प्रतिज्ञ होता है

    फिर कहता है उसके सहस्र पुत्र और पुत्रियाँ

    मेरे पास हैं

    कि इस बार वह मुझे खो नहीं सकता

    सुनकर मैं पीछे हटती हूँ

    सपने में भी आभास होता है

    मेरा एकांत सदा के लिए नष्ट होने वाला है

    तभी वह मेरी तरफ़ लपकता है

    उसके हाथ उसके चेहरे से भी ज़्यादा सख़्त हैं

    उसके पैर उसके घोड़े के पैरों की तरह ही

    ऐसा लगता है कि वह ख़ुद भी एक घोड़ा है

    उसके भीतर भी एक वेग है

    एक सनक टापों के रौंदने की क्षमता से उपजी

    मैं जान रही हूँ मेरे पास फल और नदियाँ हैं

    लेकिन दुर्बल हैं मेरे पाँव

    उसके पास वेग और सख़्ती है

    पर भूख और प्यास भी

    अचानक मैं दौड़ पड़ती हूँ

    जाने कहाँ से पैदा होती है ऊर्जा

    कहीं से हवाओं का वेग समा जाता है मुझमें

    फिर लौटती हैं वे स्मृतियाँ भी

    और मैं याद कर पाती हूँ

    यह तो वही आखेट है जिसमें मेरी हार हुई थी

    मारी गई थी मैं इसी नदी के किनारे

    इसी पत्थर पर पड़ी रही थी मेरी मृत देह

    मेरी पुत्रियाँ और पुत्र छीने गए थे मुझसे

    मेरी नदियाँ और फल लौट गए थे अनंत में

    बेतहाशा दौड़ रही हूँ

    ऊपर आकाश में उड़ रही हैं

    पानी पर चल रही हैं

    मेरे लिए कहीं कोई बंधन नहीं

    मैं कुछ भी मनचाहा कर पा रही हूँ

    ऐसा लगता है चीज़ें इस बार दूसरी तरह घटित होंगी

    वह मेरे पीछे-पीछे है घोड़े पर

    थोड़ा सुस्त अब रह-रह कर दहाड़ता मगर

    फिर बिलखता और सिर को पटकता

    दिखाता अपने घाव और रक्तस्राव

    और मैं भागती जाती हूँ

    पेड़ों की फुनगियों पर पहुँच जाती हूँ

    डालों पर झूलती हूँ

    यह सब मुझे एक खेल-सा लग रहा है

    तभी वह फेंकता है संशय के बीज हवा में

    कहता है यह खेल नहीं क्रूरता है

    याद करो हम कौन हैं—एक दूसरे के हिस्से

    अलग कर दिए गए थे जो कई सदी पहले

    याद करो जब मैं लौटा था मृत इसी घोड़े की पीठ पर

    और तुम रोती रही थी मेरे लिए अकेली

    जाने कितने वर्षों तक

    ख़ाली आसमान और मैदान देखती हुई

    तुम्हें याद नहीं आख़िर क्या हुआ था

    कौन जीता था हारा था कौन

    रक्त की एक उफनती नदी हमारे बीच थी

    यह सच था और है भी शायद

    यों सच थीं वे तितलियाँ भी

    जो हमारे भीतर से निकलकर एक दूसरे तक जाती थीं

    बैठती थीं हमारे माथों और होंठों पर

    बदल जाती थीं फिर चुंबनों में

    हम भूल जाते थे रक्त की नदी और उसके हाहाकार को

    याद करो

    याद करो

    और सचमुच याद आता है

    कितना समय गुज़रा होगा

    सचमुच कई-कई सदियाँ

    मगर मेरा वर्तमान अब भी जैसे स्पंदित है

    उन घटनाओं से

    काँपती है अब भी साँस

    आँखों में आँसू अब भी बचे हैं

    आया था मेरे प्रिय को लेकर उसका घोड़ा

    जिस पर औंधी उसकी मृत देह पड़ी थी

    उसके प्रतिद्वंद्वियों ने षड्यंत्र कर युद्ध में उसे मारा था

    प्रेम की यह परीक्षा थी

    अब मुझे उसकी संपदा से अधिक

    उसकी यादों की हिफ़ाज़त करनी थी

    बिताने थे जीवन के बाक़ी वर्ष

    देखते हुए उन ख़ाली मैदानों और खेतों को

    जिनसे होकर आई थी उसकी शांत देह

    अब भी मारक आशंकाएँ

    मन में जागती हैं

    ज़िदा अहसासों के मरने का ख़ौफ़ मन में

    करवटें लेता है

    कोई तितली मेरे पैरों के पास दम तोड़ती है

    और मुझे तब किसी घोड़े की टाप सुनाई देती है

    रक्त से लथपथ एक देह अपनी ही पीठ पर

    महसूस होती है

    एक गरम दोपहर जैसे भीतर शुरू हो जाती है

    कितना कुछ होता रहता है सतत एक सपने

    और यथार्थ के बीच

    प्रेम के भीतर कितनी मृत्यु कितना दुख

    बेआवाज़ उपस्थित होता रहता है...

    मगर कैसे जानूँ मैं

    कि जो यूँ बचा हुआ है याद में और जो है सपने में डराता मुझे

    एक ही है

    कि सख़्त हाथों और चेहरे वाला यह शख़्स ही

    था मेरा प्रिय

    कि यही वह घोड़ा था जिस पर मृत्यु आई तब

    जैसे आज मेरे लिए

    कि जो जानता था तितलियों का रहस्य

    वही हिस्सा था उस तिलिस्म का जिसे प्रेम कहते हैं

    जिसके बीचों-बीच आज भी रक्त की नदी बहती है

    ...

    और फिर आज...

    कितना अजीब है सब कुछ

    यह याद सपने और नींद के बीच का संसार

    जिसमें फूल हैं

    और सफ़ेद चाँद सीढ़ियाँ उतरता

    धरती सिर्फ़ वाष्प है या कि धुँध का कोई गोला

    कुछ लोग फिर भी दिखते कितने साफ़

    अपनी मुद्राओं में गंभीर

    भाषा में सचेत

    मग्न कामकाज में

    जैसे यह दुनिया उनके चलाए चलती हो

    भरी हुई है जो फिर भी

    अनगिनत तितलियों से

    उड़ती हैं परिचित शैलियों में जो

    महसूस होतीं उन चुंबनों की तरह

    टिके हैं जो अब भी देह पर

    सदियों से सँजोए गए उनके रंगों की तरह ही

    और आश्चर्य कि वह भी आता दिखता है इसी में

    जिसकी ये तितलियाँ हैं

    मृत उन्हीं की तरह

    फिर भी कितना सजीव, आह!

    लगता है जैसे यह सपने का हिस्सा नहीं

    स्मृति का ही विस्तार हो

    ...

    लगता है जब सरल हुआ सब कुछ

    आया सपनों के बाहर का वह ख़ाली मैदान

    जहाँ कोई घोड़ा नहीं कोई रक्त से लथपथ देह

    तभी प्रवेश करता है वह माथे पर बिठाए रंग-बिरंगी तितलियाँ

    आता है कोई प्रिय कवि भी जाने कहाँ से

    थामे अपनी बहन के दो निष्पाप कटे हाथ

    जो किसी स्त्री के प्रेम की ख़ातिर थे

    आता है बोर्खेज़ की कहानी का एक पात्र

    लिए वह जादुई किताब

    जिसके पन्ने एक बार पढ़े जाने के बाद

    दुबारा नहीं मिलते

    आता है धीरे-धीरे लौटकर

    फिर सारा दुख सारा पश्चाताप

    जिनसे मेरी दुनिया तब भी जीवंत थी

    सिर्फ़ उसमें तितलियाँ चुंबनों की तरह नहीं

    यातनाओं में शामिल हमशक्लों की तरह थीं

    और प्रेम के लिए अस्तित्व ख़तरे में था

    बोर्खेज़ की किताब नहीं थी बेशक

    खोई चीज़ों का शोक था

    और तलाश उस सपने की

    जिसमें कोई भी पन्ना अपनी किताब में

    दुबारा लौट सकता था

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्वप्न समय (पृष्ठ 41)
    • रचनाकार : सविता सिंह
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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