दो बच्चों की नींद में
do bachchon ki neend mein
अचानक दीख गई आधी जली मोमबत्ती से शुरू कर सकते हो
अनसुनी सिसकियाँ और
रुदन के एकाकी कमरे में याद कर सकते हो
दूर-दूर तक पसरे अँधेरे में गुम हो चुके शहर की
वे तमाम जगहें, जो सोच की रफ़्तार में
नहीं ले पातीं कोई आकार
उन्हें छोड़कर चले आओ, अभी और यहाँ के
प्रासंगिक समय में
यहाँ भी हैं ढेर जगहें, आने-जाने के कितने सारे रास्ते
कितने पुराने, कितने नए मुक़ाम, सुस्ताने को
छाँह कितनी घनी, कोशिश करो तो
यहाँ भी शुरू हो सकता है खेल, बिल्कुल वही का वहीं
और पास, बहुत पास आ जाने वाली स्मृति को
सोचते हुए कि यही, बिल्कुल यही थे शब्द
उस रात, उस दुपहर, उस शहर के
बीत चुके मायावी वक़्त में
यही था सुलगता झुलसता दिमाग़ और
उसकी आग फैल रही थी, कामनाओं के
मुकुलित पलाश के दहकते लाल में
हमें सचमुच अपने भीतर उतार रहे थे वृक्ष
अतल तक डूबो रही थीं नदियाँ
और सातवें आसमान से भी ऊपर के
किसी निरंग शून्य से
कोई देख रहा था
कमरे भर का वह विचित्र एकांत
जहाँ
दो मन, उड़ रहे थे अपने अलहदा ख़याल में
दो देहें जुड़ रही थीं बेख़बर
दो बच्चों की नींद में
स्वयं ईश्वर लिख रहा था अपना प्रेमातुर स्वप्न
- रचनाकार : प्रभात त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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