राम-विनय

ram winay

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    अबलों हम जीवत रहे लै-लै तुम्हरो नाम।

    सोहू अब भूलन लगे, अहो राम गुनधाम॥

    कर्म-धर्म-संयम-नियम जप-तप जोग-विराग।

    इन सबको बहु दिन भए खेलि चुके हम फाग॥

    धनबल, जनबल, बाहुबल, बुद्धि विवेक विचार।

    मान-तान-मरजाद को बैठे जूओ हार॥

    हमरे जाति बरन है नहीं अर्थ नहिं काम।

    कहा दुरावै आपसे, हमरी जाति ग़ुलाम॥

    बहु दिन बीते राम प्रभु खोए अपनो देस।

    खोवत हैं अब बैठ कै भाषा भोजन भेस॥

    नहीं गाँव में झूपड़ो नहिं जंगल में खेत।

    घर ही बैठें हम कियो अपनो कंचन रेत॥

    पसु समान बिडरत रहैं पेट भरन के काज।

    याही में दिन जात हैं सुनिए रघुकुलराज॥

    दो-दो मूठी अन्न हित ताक़त पर मुख ओर।

    घर ही में हम पारधी घर ही में हम चोर॥

    तौहू आपस में लड़ैं निसदिन स्वान समान।

    अहो! कौन गति होयगी आगे राम सुजान?

    घर में कलह विरोध की बैठे आग लगाय।

    निसदिस तामैं जरत हैं जरतहि जीवन जाय॥

    विप्रन छोड्यो होम तप अरु छत्रिन तरवार।

    बनिकन के पुत्रन तज्यो अपनो सद्-व्यवहार॥

    अपनो कछु उद्यम नहीं तकत पराई आस।

    अब या भारतभूमि में सबैं वरन हैं दास॥

    सबैं कहैं तुम हीन हो हमहु कहैं हम हीन।

    धक्का देत दिनान कों मन मलीन तन छीन॥

    कौन काज जनमत मरत पूछत जोरें हाथ?

    कौन पाप यह गति भई हमरी रघुकुलनाथ?

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 589)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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