सीलमपुर के लड़के

silampur ke laDke

आर. चेतनक्रांति

आर. चेतनक्रांति

सीलमपुर के लड़के

आर. चेतनक्रांति

और अधिकआर. चेतनक्रांति

    सीलमपुर के लड़के देशप्रेमी हो गए

    पहले वे भूखे थे, और बेरोज़गार

    और घर से, घरवालों से, रुँधे हुए नाक तक

    समाज से और देश से भी

    उन्हें समझ नहीं आता था

    कि क्या करें

    ज़िंदगी के बारे में कोई नक़्शा उनके पास नहीं था

    देश के बारे में

    वे जमुहाइयाँ लेते हुए आकाशवाणी सुनते

    और समझ पाते कि यह किसके बारे में क्या कहा जा रहा है

    पाठ्य-पुस्तकों की लिखत उन्हें पराई जान पड़ती

    कर्तव्यपरायण अध्यापक अत्याचारी लगते

    और पढ़ाकू जो मोहल्ले के आसमान में फ़ानूस की तरह लटके रहते

    उनके हर खेल का निशाना बनते

    शिक्षा उनके लिए एक औपचारिक क्रिया थी

    जिसका सबसे अच्छा उपयोग

    सरकारी नौकरी था

    लेकिन वह बहुत ऊँचा आदर्श था

    जिसके लायक़ वे ख़ुद को नहीं मानते थे

    यूँ ही बस बाई-डिफ़ाल्ट।

    पड़ोसी के टी.वी. में इतवार की फ़ीचर फ़िल्म

    एकमात्र ठिकाना थी

    जहाँ वे कुछ देर रह सकते थे

    और जिसे बाद में एक बड़ी दुनिया का

    दरवाज़ा बनना था

    सालों वे उसे खोलते-बंद करते रहे

    फिर जब वह अंतत: खुला

    और नब्बे का दशक

    मुहावरा बनने से पहले

    चार सौ साल पुरानी

    एक मस्जिद की धूल

    हवाओं को सौंपकर

    खिड़कियाँ खोलने में जुटा

    वे अपने अँधेरों से

    ऊब चुके थे

    फिर रोशनी हुई

    सब तरफ़ उजाला

    सब साफ़ दिखने लगा

    यह भी कि जिन स्वार्थों को बल्लियों पर टाँगकर

    दुर्लभ कर दिया गया था

    सबके लिए प्राप्य थे

    जिन्हें धर्मग्रंथ त्याज्य कहा करते थे

    वे भी।

    दुनिया

    रोज़ एक टोटके क़ालीन की तरह

    थर्रर्र से खुलती

    रोज़ क्षितिज थोड़ा और पास जाता

    रोज़ आत्मा की गिरहें

    तड़-तड़ टूटतीं

    रोज़ रीढ़ का एक सुन्न हिस्सा

    जाग उठता

    रोज़ पता चलता

    कि पैसा बुरी चीज़ नहीं है

    रोज़ मालूम होता कि प्रेम पाप है, हस्तमैथुन

    राम और युधिष्ठिर

    जब अपनी गंभीर मुद्राएँ

    कैमरामैन को सौंपकर

    हँसते हुए चले

    और उनसे ज़्यादा हँसते हुए

    कुछ और लोग

    दौड़कर मंच पर आए

    कि आगे मनोरंजन हम करेंगे

    वे जान चुके थे कि

    सत्य वही है जो सामने है

    और यह भी

    कि वह डरावना तो बिल्कुल भी नहीं।

    बरसों से हवा में लटके

    उनके निहत्थे और अनाथ हाथ

    एक-एक मोबाइल पकड़कर

    जिस दिन वापस लौटे

    उन्हें पता चल चुका था

    कि कुछ तो होता रहा है

    उन्हें बिना बताए

    कि लड़कियाँ

    उन पर हँस रही हैं

    और हर साल उन्हीं के फ़ोटो

    पहले पन्ने पर छपते हैं

    और हर दिन

    वे और ज़्यादा अ-लैंगिक दिखाई देती हैं

    हर दिन और ज़्यादा कमनीय, लेकिन और भी ज़्यादा उदासीन

    कि जैसे उन्हें पता ही रहा हो

    कि दुनिया को मर्द चलाते हैं।

    क्रोध और प्रतिशोध में उन्होंने

    लाखों डॉक्टरों-इंजीनियरों, जजों और प्रधानमंत्रियों को

    नालियों के हवाले कर दिया

    उन्हें यह देश नहीं चाहिए था

    जिसमें प्राकृतिक चीज़ों की इतनी हेठी हो

    कंधे तक हाथ डाल-डाल कर

    मोबाइल की स्क्रीन में

    मसल डाला उन्होंने दूर देश की जाने कितनी औरतों को

    जिन्हें वे दिन-भर

    मुहल्ले की पढ़ाकू लड़कियों की टाँगों में

    मुस्कुराते देखते थे

    और आगे जाकर थूक देते थे

    वीर्य और रक्त की बाल्टियाँ कंधे पर टाँगे

    वे रात-रात भर घूमते

    कामनाओं की तस्वीरें बनाते

    बसों, रेलों, पेशाबघरों में

    और पुलों के नीचे

    लिख-लिख छोड़ते रहे अपने संदेह

    जिनका कोई जवाब उन तक नहीं पहुँचा।

    रामलीला मैदान में जब वह बूढ़ा

    गांधी की तरह मरने बैठा

    बलिदान का भारतीय आदर्श उनके लए मज़ाक़ बन चुका था

    वे नाउम्मीदी की हदों पर मँडरा रहे थे

    वह जीने की भूख थी

    जो उन्हें वहाँ लेकर गई

    कई दिन वे सड़कों पर दनदनाते घूमे

    कई दिन उन्होंने हर सवाल का जवाब

    मोटरसाइकिल से दिया

    और जिस वक़्त यह तय हुआ

    कि देश को सिर्फ़ ताक़त से चलाया जा सकता है

    वे ख़ुद ही जान चुके थे कि पौरुष ही पथ है।

    फिर हज़ारों रंग उतरे

    दिल पर अलग, देह पर अलग

    और हज़ारों ख़्वाहिशें

    जो अलग-अलग बोलियों में

    दरअसल ताक़त की ही ख़्वाहिश थीं।

    वे वजहें ढ़ूँढ़ने निकले

    जो एक नाख़ुश देश के

    हर नुक्कड़ पर उपलब्ध थीं

    पर उन्होंने जो चुना

    वह सिर्फ़ इसलिए नहीं कि आसान था

    इसलिए भी कि उसमें शरीर-सौष्ठव के प्रदर्शन की गुंज़ाइश थी

    निष्ठा के पातिव्रत और अमानवीय की संवैधानिकता को

    सिद्ध करने की

    गारंटी भी

    वे सत्य के लिए

    वन नहीं जाना चाहते थे

    उनके लिए इतना काफ़ी था

    कि आधी रात जगाकर कोई कहे

    कि जो तुम छाती से चिमटाकर सो रहे हो

    देख लो वह कितना सच है

    अंतिम तौर पर विश्वास करने के लिए

    वे काफ़ी थक चुके थे

    उनकी हड्डियाँ अब आवरण माँग रही थीं

    सो पहले उन्होंने पौरुष पहना

    फिर पैसा

    और सबसे ऊपर देश

    जिसने सब शिकायतें

    सब दु:ख

    सोख लिए

    वे कहते घूमे कि क्या हुआ जो मरते हैं लोग

    लोग तो मरते ही हैं असली बात है देश

    और देश का विकास

    और जिस दिन वह सहसा कंधे पर बैठा मिला

    वह आदमी जिसने जाने किस-किस तरह बताया

    कि छाती चौड़ी हो और टाँगों पर बाल हों

    और हाथ में लाठी हो और

    दिल में सत्य को पा लेने का भरोसा और

    संशय से सुरक्षित रहने का आत्मबल

    तो कुछ भी किया जा सकता है

    लेकिन वह पहले विकास करेगा, उसने कहा।

    और सीलमपुर के लड़के मुस्तैद हो गए

    बोले कि अब जो सामने आया तोड़ देंगे तोड़ देंगे जो पीछे से हँसा

    तोड़ देंगे जो ऊपर से मुस्कुराया

    तोड़ देंगे जो नीचे कुलबुलाया

    और इस मंत्र को जपते हुए बैठ गए

    एक आँख बंद कर समाधि में

    और दूसरी आँख खोलकर

    तैयारी में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वीरता पर विचलित (पृष्ठ 13)
    • रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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