एक अपाहिज धर्म

ek apahij dharm

नवेंदु महर्षि

नवेंदु महर्षि

एक अपाहिज धर्म

नवेंदु महर्षि

और अधिकनवेंदु महर्षि

    हिंदुत्व ने हमेशा

    ब्राह्मणों का ही

    भला किया है

    इसलिए आज से

    वे ही इसे सँभालें

    जैसे भी जी चाहे ओढ़ें

    जैसे भी जी चाहे बिछाएँ

    चाहे पूजा घर में रखकर

    इसकी आरती उतारें

    चाहे शोकेस में रखकर

    शोपीस की तरह सजाएँ

    अथवा चाहे सिर पर रखकर

    गली और सड़कों पर

    नाचते फिरें

    लेकिन देश के

    चालीस करोड़ दलितों की तो

    अब इसमें थोड़ी-सी भी

    दिलचस्पी नहीं रही

    जिन्हें कि यह केवल

    जूतियाँ बनाने भर के लिए

    झाड़ू लगाने भर के लिए

    हल चलाने भर के लिए

    और दंगे कराने भर के लिए

    हिंदू समझता है

    और जिन्हें

    ब्रह्मा के पैरों से

    पैदा हुए कह कर

    परिभाषित करता है

    और इसीलिए

    बराबर बैठाने की बजाय

    हमेशा अपने पैरों में

    स्थान देता है

    मान और सम्मान को

    अपने पैरों तले

    कुचलता है

    और इन्हीं पैरों पर

    ख़ुद ही कभी

    कुल्हाड़ी मारने से

    बाज़ नहीं आया

    अब ये

    चालीस करोड़ दलित रूपी पैर

    कट कर

    अलग होना स्वीकार

    कर चुके हैं

    हिंदुत्व के साथ

    जुड़े रहने का मोह

    अब पूरी तरह

    छोड़ चुके हैं

    इनके अलग होने के

    दर्द का एहसास

    इसे उस दिन होगा

    जिस दिन इसे

    एक अपाहिज धर्म बनकर

    दुनिया में जीना पड़ेगा

    और तनिक सहारे भर के लिए

    बैसाखी तक नसीब नहीं होगी

    उस दिन यह हिंदुत्व

    दुनिया का

    सबसे निरीह धर्म होगा!

    स्रोत :
    • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 164)
    • संपादक : कँवल भारती
    • रचनाकार : नवेंदु महर्षि
    • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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