देशप्रेम की कविता उर्फ़ सारे जहाँ से अच्छा...

deshaprem ki kawita urf sare jahan se achchha

अजय सिंह

अजय सिंह

देशप्रेम की कविता उर्फ़ सारे जहाँ से अच्छा...

अजय सिंह

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    दिवंगत कवि शमशेर को, उनके 84वें जन्मदिन पर याद करते हुए

    मैं आधा हिंदू हूँ
    आधा मुसलमान हूँ
    मैं पूरा हिंदुस्तान हूँ

    मैं गंगौली का राही मासूम रज़ा हूँ
    मैं लमही का प्रेमचंद हूँ
    मैं इक़बाल का बाग़ी किसान हूँ
    मैं शमशेर के ग्वालियर का मजूर हूँ
    मैं पटना की शाहिदा हसन हूँ
    मैं नर्मदा की मेधा पाटकर हूँ
    मैं शाहबानो हूँ
    मैं शिवपति और मैकी हूँ
    मैं वामिक का भूका बंगाल हूँ
    मैं केदार की बसंती हवा हूँ
    मैं आलोकधन्वा का गोली दाग़ो पोस्टर हूँ
    मैं अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास हूँ

    मैं पूरा हिंदुस्तान हूँ

    मैं भिवंडी हूँ
    मैं बंबई का ख़ौफ़नाक चेहरा हूँ
    मैं सूरत की लुटी हुई इज़्ज़त हूँ
    मैं भागलपुर बनारस कानपुर भोपाल में
    ज़िंदा जलाया गया मुसलमान हूँ

    मैं नक्सलबाड़ी हूँ
    मैं मध्य बिहार का धधकता खेत-खलिहान हूँ
    मैं नई पहचान के लिए छटपटाता उत्तर प्रदेश हूँ
    जो न कायर है न भदेस
    मैं नया विहान हूँ

    मैं पूरा हिंदुस्तान हूँ

    मैं वह अनगिनत हिंदू औरत हूँ
    जैसा साल दर साल के आँकड़े बताते हैं
    जिन्हें फ़्रिज टी.वी. स्कूटर चंद ज़ेवरात के लिए
    भरी जवानी आग के हवाले कर दिया गया
    और कहा गया :
    खाना बनाते समय कपड़े में आग लग गई
    मैं वह अनगिनत मुसलमान औरत हूँ
    जिन्हें तलाक़ तलाक़ तलाक़ कह कर
    गर्मी की चिलचिलाती दुपहर
    जाड़े की कँपकँपाती रात
    घर से बेघर कर दिया गया
    और कहा गया :
    मेहरून्निसा बदचलन औरत है
    जैसे गर्भवती सीता को
    अँधेरी रात सुनसान जंगल में

    कितनी अजब बात है!
    सीता धरती से पैदा हुई
    और वापस धरती में समा गई :
    बेइज़्ज़त और लांछित होकर :
    प्रकृति के नियम को धता बताते हुए
    लेकिन आज की सीता फ़ातिमा ज़हरा
    धरती की कोख में नहीं लौटेंगी
    यह द्वंद्ववाद के ख़िलाफ़ है
    वे लड़ेंगी
    क्योंकि, जैसाकि पाश ने कहा था,
    साथी, लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता

    मैं बेवा का शबाब हूँ
    मैं कैथरकला की औरत हूँ
    मैं राजस्थान की भँवरी बाई हूँ
    मैं चंदेरी की मलिका बेगम हूँ
    जिसका दायाँ पाँव काट लिया गया
    पर जो अभी भी इच्छा-मृग है
    चौकड़ी भरने को आतुर-वीरेन की कविता की तरह
    मैं भोजपुर का जगदीश मास्टर हूँ
    मैं जुलूस हूँ
    साझा हिंदुस्तान के लिए
    बराबरी वाले हिंदुस्तान के लिए
    इंसाफ़ वाले हिंदुस्तान के लिए

    वह देखो!

    जुलूस में जो लाल परचम और
    बंद मुट्ठियाँ लहरा रही हैं
    उनमें कितनी हिंदू कितनी मुसलमान :
    कौन करे हिसाब?

    हिंदुस्तान बनिए की किताब तो नहीं
    जुलूस में सिर से आँचल
    कब कंधे पर गिरा
    गेसू बिखरे
    आज़ादी की छटा बिखरी
    पतली लेकिन सधी आवाज़ में नारा लगा :
    ‘बलात्कारी को मौत की सज़ा दो!’
    कब बुर्क़ा उठा :
    जैसे बाहर की ओर खिड़की खुली
    और उस साँवली सूरत ने नारा लगाया :
    ‘आज़ादी चाहिए... इंक़लाब चाहिए!’

    आज़ादी
    स्वतंत्रता
    मुक्ति
    हिंदू को भी उतनी ही प्यारी है जितनी मुसलमान को
    जब ये शब्द रचे जा रहे थे
    न जाने कितनी बेड़ियाँ टूट रही थीं
    न जाने कितने हसीन ख़्वाब साकार होने को थे

    ख़्वाब भी कभी हिंदू या मुसलमान हुए हैं?

    मैं वाम वाम वाम दिशा हूँ
    ओ मायकोवस्की!
    ओ शमशेर!
    यही है हक़ीक़त हमारे समय की
    मैं सथ्यू की फ़िल्म ‘गर्म हवा’ का आख़िरी सीन हूँ
    मैं लाल क़िले पर लाल निशान
    माँगने वाला हिंदू हूँ मुसलमान हूँ
    मैं पूरा हिंदुस्तान हूँ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अजय सिंह
    • प्रकाशन : समालोचन वेब पत्रिका

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