दृश्य में सिर्फ़ करुणा नहीं थी

drishya mein sirf karuna nahin thi

नीलोत्पल

नीलोत्पल

दृश्य में सिर्फ़ करुणा नहीं थी

नीलोत्पल

और अधिकनीलोत्पल

     

    एक

    दृश्य में सिर्फ़ करुणा नहीं होती
    मजबूरी भी होती है

    बेबसी का यह आलम
    इतना लंबा और कठिन है कि
    इसे नापने या समझने के लिए
    यातना और दुख के पहाड़ की
    एक दुर्गम यात्रा करनी पड़ेगी

    यह कोई शुरुआत नहीं है
    यह मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं है
    त्याग दिए जाने या छोड़ देने के बाद
    यह ऐसा अवसाद और उदासी है
    कि हम एक बड़े निचाट में उनके लौटने की
    एक असंभव राह देखते हैं
    जबकि रात के अँधेरे से गुज़रते हुए
    वे इतने संगतकार हो गए हैं
    कि उनके पदचाप भी सुनाई नहीं देते

    वे एक हैं, हज़ार हैं
    या असंख्य
    मुझे सिर्फ़ एक ही आवाज़ सुनाई देती है
    उन्हें घर लौटना है

    सारी आवाज़ें चुप हैं
    समूची पृथ्वी पर सिर्फ़ यही गूँजता है
    उन्हें घर लौटना है

    दो

    हम देखकर अनुमान नहीं लगा सकते कि
    उन्हें किस बात की जल्दी है
    ऐसा लगता है जैसे भीषण गर्मी में
    जीवन की इस निस्तब्धता को
    उनकी असंख्य परछाइयाँ ढक देना चाहती हैं

    इस दृश्य में चीत्कार नहीं, क्रंदन नहीं
    सत्ता का डंक है

    पलायन का यह महादृश्य
    आज़ादी की उन स्मृतियों की ओर ले जाता है
    जहाँ हमने अपने ही देश में
    सीमा के बीचोबीच चलते
    उन हज़ारों लाखों नंगे पाँव को
    अपनी निस्सहायता में डूबते देखा

    सत्ता को पता है
    ग़रीबों के लिए न्याय सबसे अंत में होता है
    लेकिन ज़रा ठहरिए!
    उसमें भी एक पॉज़ बटन है
    सरकारों के कान नहीं होते
    इसलिए उन्हें मरते छोड़ देने की यह एक खुली ट्रेनिंग है।

    तीन

    बुलढाणा, समलखा, जालना, बड़वानी
    गढ़मुक्तेश्वर, पलामू, बाबूगढ़, हावड़ा,
    गोंडा, सोनीपत, फ़िरोज़ाबाद, गढ़ गोविंद,
    लौनी, सरसाना, बालाघाट, कुंडे मोहगाँव, चंदौली, अंबाला...

    यह सब केवल जगहों के नाम नहीं
    सघन कठोर दुख का पिघला चेहरा है

    इस सदी की चिंता में डूबा हुआ इनका हर क़दम

    अपनी शोकाकुल आँखों से
    इस व्यथा को देखते
    पेड़ों ने अपनी ख़ामोशी को
    और गाढ़ा और चित्तेदार किया हो जैसे

    चार

    यह अविराम चलते जत्थे
    सड़कों, खेतों, ट्रेन की पटरियों के सहारे
    किसी अनंत की खोज में चलते चले जा रहे हैं

    क्या बच्चे, क्या महिला, क्या जवान, क्या बूढ़े
    सभी एक ही तरह की आग
    और एक ही तरह की भूख को लिए
    चलते चले जा रहे

    यहाँ मृत्यु का कोई अर्थ नहीं
    हर किसी के पास इसका पासवर्ड है

    पाँच

    औरंगाबाद एक ख़ास जगह है
    यहाँ 'पश्चिम का ताजमहल' है
    औरंगज़ेब की पत्नी राबिया दुरानी का मक़बरा है
    बाबा शाह की मज़ार है
    जहाँ सादगी का बिछौना है

    यहाँ अतीत के बहुत से दरवाज़े हैं
    लेकिन यह खुलते नहीं
    चाहे वह जालना, पैठन या मक्का रोशन का दरवाज़ा हो
    हम उन्हें नहीं खोल सकते

    इन दिनों औरंगाबाद बहुत उदास है
    उसके प्लेटफ़ॉर्म सूने है
    उसमें अतिथियों के लिए कोई दरवाज़ा नहीं खोला गया

    वह नहीं कह सकता
    उस पर घर लौट रहे
    ट्रेन से कुचले सोलह मज़दूरों की हत्या का
    मुक़दमा चलाया जाए

    हालाँकि उसने यह भी नहीं कहा
    हत्या उसने नहीं
    सत्ता की अंधी ट्रेन ने की है...

    छह

    बारह साल की जमालो मक़दम
    तेलंगाना के कन्नईगुढ़ा में
    मिर्च के खेतों में काम करती थी

    यही उसने जाना
    यह दुनिया स्कूल की किताबों से
    कहीं बड़ी, कहीं ज़्यादा असली है

    यही दुख के पेड़ है
    और मजबूरी के विशाल पहाड़

    वह अभी उम्र का गणित सीख रही थी कि
    कोरोना जैसी महामारी ने सब गड़बड़ कर दी

    वह नहीं जानती थी
    सत्ता इस बीमारी से ज़्यादा बीमार है

    फिर भी उसने अपने घर के लिए
    सौ किलोमीटर तक क़दमों को पैदल नापते हुए गिनती सीखी

    कच्ची उम्र और कच्चे ज्ञान की तरह
    वह यह भूल गई
    उसे बारह के बाद अभी सीखना बाक़ी है

    बचे हुए रास्ते को वह नहीं नाप पाई

    पिता अंदोराम घर के बाहर
    उसके लौटने की प्रतीक्षा में है

    जमालो मक़दम के अंतिम शब्द
    भूख और प्यास ही थे

    जिस वजह से वह लौटी
    उसके अंतिम रिपोर्ट निगेटिव निकली

    उसकी उम्र जितने ही किलोमीटर बचे थे
    घर पहुँचने से पहले...

    सात

    याक़ूब मुहम्मद अमृत को जानता था
    अमृत याक़ूब मुहम्मद को

    जैसे परिंदा पेड़ों को जानता है
    पेड़ परिंदे को

    जैसे आग चूल्हे को पहचानती है
    चूल्हा आग को

    दोनों निश्चिंत थे
    दोनों सिर्फ़ प्रेम को जानते थे

    दोनों के पास किसी तरह का चमत्कार नहीं था
    लेकिन दोनों अपनी दोस्ती को बख़ूबी पहचानते थे

    मौत के पास एक ही का पता था
    बेरोज़गारी और बीमारी में
    सिर्फ़ दोस्त ही सगा निकला

    अमृत याक़ूब मुहम्मद की गोद में
    वह भरोसा छोड़ गया।

    आठ

    उसके दोनों पैरों में प्लास्टिक पन्नियों की चप्पल थी
    और वहाँ चले जा रहा था

    दूसरे के एक पैर में जूता और एक पैर में चप्पल थी
    वह भी रास्ता नाप रहा था

    एक किसी के पैर में न चप्पल थी न जूता
    उसने अपनी चमड़ी को ही जूते चप्पल की शक्ल दी
    और कड़ी धूप में चलता रहा

    एक वह भी था जिसने रास्ते में मिली पानी की दो ख़ाली बोतलों को
    किसी रस्सी के सहारे अपने पैरों में नाथ लिया
    और निकल पड़ा मिलों लंबे सफ़र के लिए

    एक ऐसा मजबूर भी था
    जिसके एक ही पैर में चप्पल थी
    जिसे बदल-बदल कर दोनों पैरों में पहनता रहा

    यह कड़ी धूप में
    अपनी सजाएँ लिखने का वक़्त था

    सभी के पैरों में छाले थे
    सभी जीवन का छंद लिख रहे थे

    नौ

    कुछ चिट्ठियों में लिखने वालों के
    हृदय धड़कते हैं

    मुहम्मद इक़बाल ख़ान अपने विकलांग बेटे के लिए साइकल चुराने के एवज़ में
    क़ानून तुम्हारे लिए जो भी सज़ा तज्वीज़ करता 
    हम सब उसे मान लेने के लिए बाध्य होते।

    चूँकि तुम्हारी छोड़ी गई चिट्ठी ने इस बात का ख़ुलासा किया कि तुम भरतपुर
    से बरेली तक मिलों दूर अपने घर जाना चाहते थे 
    इसलिए तुमने सहनावाली गाँव से आधी रात साइकिल चुराई

    मुहम्मद इक़बाल ख़ान चिट्ठी में तुम्हारी स्वीकारोक्ति सज़ा कम कर सकती है
    लेकिन तुम्हें बचा नहीं सकती

    तुम्हारा दूसरा और बड़ा गुनाह यह है कि 
    तुमने लॉकडाउन के बावजूद सरकार का
    यह नियम तोड़ दिया

    इसके लिए भी कोई तो सज़ा होगी 
    जैसे मानवता के दुश्मन, देशद्रोही या फिर
    कोरोना जिहादी

    तुम अपनी बेगुनाही कभी साबित नहीं कर पाओगे 
    यह सिस्टम और यह सत्ता जो
    तुम्हें आधी रात सड़कों पर निकलने के लिए मजबूर कर देती है कभी नहीं
    मानेगी कि तुम बेक़सूर हो

    वह छोड़ी गई चिट्ठी
    तुम्हारे ज़ुल्म का इक़बालनामा है

    एक कवि तुम्हें यह सज़ा देना चाहता है कि
    तुम इस दुनिया का अंतिम शब्द क्षमा लिखना।

    दस

    प्यारी बेटी ज्योति कुमारी पासवान
    जिन कविताओं को हम लिख रहे थे
    उन्हें एक दिन मिट जाना था

    एक दिन हमारे मोज़े, दस्ताने
    और गर्म कोट को भी ग़ायब हो जाना था
    हम भूल जाने वाले थे अपने पसंदीदा खेल को

    हम भूलने के लिए अभिशप्त हैं

    सूचनाओं की अधिकता में
    कहानियाँ रोज़ बदल जाती हैं
    नाम और चेहरे हमारी कमज़ोर याददाश्त में
    दो दिन से अधिक टिक नहीं पाते

    एक दिन हम यह भी भूल जाएँगे
    कि तुम्हारी छोटी उम्र ने
    जीवन की कठिन परीक्षा पास कर ली है

    इस बात के गवाह बारह सौ किलोमीटर का वह लंबा रास्ता
    और तुम्हारे दो थके पैर हैं

    तुम्हारा गणित दुनिया की किसी किताब में नहीं समा सकता

    तुमने सीख लिया
    ज़मीन में गाड़ दिए जाने के बाद
    मुर्दे किस तरह ख़ामोश रहकर
    जीना सीख लेते हैं।

    ग्यारह

    तस्वीरों में मृत्यु अमर हो जाती हैं
    फिर न उनमें भूख देखी जा सकती है 
    न प्यास
    न पाँव के छाले और न वह प्रतीक्षा

    जो घर कभी नहीं लौट पाएँगे
    उनके लिए मृत्यु भी एक प्रतीक्षा है

    यह दुख की अभिव्यक्ति है
    मगर इसमें दुख नहीं
    एक लाश है
    जिसे दुख में कहना मुमकिन नहीं

    माँ का आँचल खींचते
    बचे इस बच्चे के पास
    बचा हुआ सिर्फ़ दुख है

    जो वह अंत तक नहीं कह‌ पाएगा...

    बारह

    भानु गुप्ता तुम्हें कोई हक़ नहीं था
    सरकार को बदनाम करने का

    तुम चुपचाप नहीं मर सकते थे

    क्या तुम्हें सच छुपाना नहीं आता

    तुम्हारा सुसाइड नोट अमर नहीं है
    तुमने जहाँ इसे ख़त्म किया है
    तुम 'फ़ुल स्टॉप' लगाना भूल गए

    तुम्हारी आत्महत्या निजी विचार नहीं है
    ख़ैर के वृक्षों की तरह
    तुमने फिर से इस शहर को ढक लिया है

    शायद तुम नहीं जानते
    शहर के पुराने नाम लक्ष्मीपुर की तरह
    तुम्हारा सुसाइड नोट भी बदल दिया जाएगा।

    तेरह

    जो हुआ उसे बहुत ताक़त से छिपाया गया
    जिसे तुम नहीं जान पाए
    उसकी पर्देदारी बहुत गहरी कर दी गई

    बहुत सारी हत्याओं के क़ातिल
    कभी नहीं मिले

    हत्याओं में भी आत्महत्याएँ खोजी गईं

    मरे को समझना आसान था
    ज़िदों के पास सवाल थे

    आत्महत्या कभी अकेले नहीं की गई
    उसमें भूख, बेबसी और सरकार शामिल थी

    चौदह

    हर चीज़ में गहरा सन्नाटा पसरा है

    जिन लोगों ने सड़क के पार कर ली है
    वे अब भी घर नहीं पहुँचे हैं

    उनकी पदचाप रास्ते में भटक गई है
    उन्हें कभी घर के बारे में बताया नहीं गया

    उन्होंने ख़ुद से ही घर को जाना
    जैसे कभी उन्होंने जाना
    कि ज़मीन के नीचे पानी कितना गहरा है
    या जैसे दिशाओं के बारे में
    कभी चुके नहीं कि चारों दिशाओं में
    वही दिशा घर को जाती है
    जिसका मुँह हमेशा पीठ की ओर होता है

    वे विडंबना के नहीं
    सत्ता के भटकाए थे

    उनकी निरंतर गिरती पदचाप
    धरती की ख़ानाबदोश आवाज़ है

    रास्ते गवाह हैं कि
    उनकी अनुपस्थिति एक ऐसा पलायन है
    जो कभी ख़त्म नहीं होगा

    यह उसी सन्नाटे का उपजाया गीत है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नीलोत्पल
    • प्रकाशन : समालोचन

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