आदमी का गाँव

adami ka ganw

आदर्श भूषण

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आदमी का गाँव

आदर्श भूषण

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    हर आदमी के अंदर एक गाँव होता है

    जो शहर नहीं होना चाहता

    बाहर का भागता हुआ शहर

    अंदर के गाँव को बेढंगी से छूता रहता है

    जैसे उसने कभी गाँव देखा ही नहीं

    शहर हो चुका आदमी

    गाँव को कभी भूलता नहीं है

    बस किसी से कह नहीं पाता कि

    उसका गाँव बहुत दूर होता चला गया है उससे

    उसकी साँसों पर अब गाँव की धूल नहीं

    शहरी कारख़ानों का धुआँ ससरता है

    उसके कानों में अब मवेशियों के गले की घंटियाँ नहीं

    तिगड़म भरी गाड़ियों की आवारा चिल्ल-पौं रेंगती है

    हर आदमी जिसका गाँव शहर हो चुका है

    उसका गाँव बौना होता चला जाएगा

    अपने बाटों को मिटाते हुए

    अहातों में किवाड़ें लगाते हुए

    चौक पर पहरेदार बिठाते हुए

    शहर को चिढ़ लगी रहती है कि

    गाँव रुका हुआ है

    वह बार-बार जाकर उसको टोकता है

    खँगालता है खोदता है

    उसके रुके हुए पर अफ़सोस प्रकट करता है

    अपना बुशर्ट झाड़ता है

    आँखों पर एक काला पर्दा चढ़ाता है

    और दुरदुराते हुए निकल जाता है

    हर आदमी जो गाँव लिए शहर होने चला आया है

    वह नहीं जानता

    शहरी तौर-तरीक़ों की ऊटपटाँग भाषा

    और आवाज़ों की उलझनें

    कि यहाँ कम बोलना होता है

    कम खाना होता है

    कम ओढ़ना होता है

    कम सोना होता है

    धीरे बोलनी होती है अपनी गँवई बोली

    धीरे-धीरे खिसकानी होती है थाली

    धीरे फटकनी होती है चादर

    धीरे से माँगनी होती है नींद

    ज़्यादा करनी होती है चापलूसी

    ज़्यादा देना होता है धक्का भीड़ को

    ज़्यादा बरतनी होती है औपचारिकता

    ज़्यादा बघारनी होती है शेखी

    ज़्यादा बजाने होते हैं गाल

    ज़्यादा ख़र्च करनी होती है जीविका

    हर आदमी जिसका गाँव किराए पर

    बिताता है जीवन शहर में

    एक सपना किस्तों में देखता है कि

    किस्तें बरामद कर ढूँढ़ लेगा

    गाँव तक जाने वाली सड़क

    हर आदमी के अंदर का गाँव

    लौटना चाहता है जहाँ से वह आया था

    या उसे आना पड़ा था

    आदमी भले लौटे लौटे

    गाँव लौटना चाहता है

    शहर को वैसा ही छोड़कर

    जो वह होना नहीं चाहता।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आदर्श भूषण
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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