चिड़िया : दो कविताएँ

chiDiya ha do kawitayen

वंशी माहेश्वरी

वंशी माहेश्वरी

चिड़िया : दो कविताएँ

वंशी माहेश्वरी

और अधिकवंशी माहेश्वरी

     

    एक

    चिड़िया
    अपने आस-पास मोहताज़ है
    नंगे पंख
    और सूनी आँखों में
    ख़ानाबदोश चिड़िया
    पेड़ से आकाश जाती है

    उसका आना-जाना
    प्रसन्न लय का स्वभाव नहीं है
    उसका उन्माद
    गिरती पत्तियों को झेलते
    स्कूली बच्चे
    जैसा होता है

    चिड़िया
    ख़ालीपन से थकी-हारी
    चुपचाप वैमनस्य से भर जाती है
    वह तैयार ज़िंदगी नहीं जीती
    कामकाजी तिनके बटोरकर
    निजीपन बनाती है

    चिड़िया
    ख़बर बतर पर नहीं पलती
    उसकी विश्वसनीय आँखों में
    सीधेपन की फ़ज़ीहत होती है

    चिड़िया
    अकेली यात्रा को
    नहीं मानती वांछनीय
    उसका दारोमदार हौसला
    घोंसले के बाहर आता है
    उसके क़द का जितना
    आकाश
    जितनी ज़मीन है
    मानती अपनी

    चिड़िया
    बग़ैर माथापच्ची किए
    अपने भटके चिड़ियापन को
    एकाकार करती है
    उसका साहस अनवरत होता है

    चिड़िया
    उल्लेखनीय होना नहीं चाहती
    उसका प्रस्फुटित मन
    आगामी आगाह करता है

    चिड़िया
    पेड़ से
    अपनी चोंच को पैना करती है!

     

    दो

    चिड़िया
    पेड़ का सहारा ढूँढ़ने
    आकाश से उतरती
    ख़ामोश
    आकाश लौट जाती है।

    चिड़िया का बचपन
    हवा की रस्सियों में झूलकर
    पेड़ की गोद में बढ़ा है
    पेड़ के आस-पास
    अपने पंखों का चुपचाप खुलना
    चिड़िया की याददाश्त में
    अटका है।

    चिड़िया
    पिछली यात्राओं से लौटकर
    बचपन का हाथ छोड़ती है।

    वयस्क चिड़िया की आँखों में
    हवा का सामना करने की
    दिनचर्या होती है।

    चौकन्नी चिड़िया
    एक बार खुलकर
    सोच-विचार करती है
    तब सुनसान आँखों में आँखें नहीं होती थीं
    बढ़ते क़द के कौतुक में बढ़ना नहीं होता था
    सोचा करती थी—चिड़िया!

    स्मृत चिड़िया
    इतने पर अब
    ज़रूरत से ज़्यादा ज़रूरत नहीं चाहती
    उसकी दिक़्क़त इतनी है
    वह चिड़िया जितनी चिड़िया
    होना चाहती है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : वंशी माहेश्वरी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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