छाया
कई दिनों से देख रहा हूँ
वह वहाँ खड़ी हो गई है
चुपचाप मुँह नीचे करके
ठीक मेरे फाटक के सामने
निश्चल मूर्ति की तरह
चाहती तो अनायास फाटक खोलकर
अंदर आ सकती थी
बरामदा, ड्राइंग रूम पार करके
सीधे मेरे शयनकक्ष में घुस सकती थी
मेरी किताबें, मेरे ख़्याल
मेरा अवशिष्ट आयुष, मेरे सपने
अपनी इच्छानुसार ले जा सकती थी
किंतु मूर्ख की तरह उसने ऐसा कुछ नहीं किया
भ्रमित स्वर में और पाँच लोगों की तरह
बरामदे से उठकर,
पुजारी, पुकारा तक नहीं
हालाँकि, रास्ता छोड़कर चली भी नहीं गई
धूप, धाप, शीत, ठंड सब सहते हुए
चाँदनी रात में बिजूखा की तरह
वह वैसे ही वहीं खड़ी रही
फाटक तक नहीं खोला
किंतु क्या तंत्र-मंत्र वह जानती थी किसे पता
मेरे सारे सपनों में आकर हो जाती खड़ी
फिर उसके बाद बेटा-बेटी, पत्नी और मैं
आमने-सामने, चौकी पर बैठकर चाय पीते समय भी लगा
हम सभी शून्य आकाश में चमकते नक्षत्र की तरह
सारी बातें अचानक बिगड़ने लगी
बात पूरी होने से पहले
अन्यमनस्क भाव से हो गया मैं चुप
उसके डर से या पता नहीं क्यों
जो चिड़िया घर के सामने पेड़ डाल पर बैठ
बहुत गीत गा रही थी
और मैं सोच रहा था
वे सारे गीत ख़ासकर मेरे लिए
वो कहाँ उड़ गई
पेड़ लताएँ दुर्बल और सूखी दिखने लगी
चंद्रमा का प्रकाश भी निष्प्रभ धुंधला
लग रहा था और कुछ दिन यदि वह ऐसे ही
खड़ी रहेगी तो
चंद्रमा पूरी तरह से काला पड़ जाएगा
चिड़िया गीत भूल जाएगी
पेड़ लताएँ सूखकर मर जाएँगे
सारे शब्द समाप्त हो जाएँगे
नौकर-चाकर, स्त्री बच्चे जिसको भी
पूछने से वे कहते थे, कहाँ
फाटक के पास में केवल हवा के सिवाय
और कुछ भी नहीं
मैंने कितने उपाय किए
आदर के साथ उसे घर में बुलाने के लिए
मगर उनमें निष्फल रहा
तब सोचा धमकाकर दुश्मन की तरह भगा दूँगा
किंतु यह भी काम नहीं आया
क्या दिन, क्या रात
क्या आषाढ़, क्या फाल्गुन
नीचे सिर करके सपनों में
देखते सपनों की तरह
वह वैसे ही वहाँ खड़ी रही।
- पुस्तक : ओडिया भाषा की प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 149)
- रचनाकार : सीताकांत महापात्र
- प्रकाशन : यश पब्लिकेशंस
- संस्करण : 2012
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