चक्र

chakr

 

भूख का चक्र

सबके हिस्से मज़दूरी भी नहीं अब
शरीर में ताक़त नहीं तो मज़दूरी कैसे 

छोटे नोट और सिक्के हैं चलन से बाहर

पाँच सौ के नोट पर छपी  
पोपले मुँह वाली तस्वीर भी 
कई दिन से भूखी है 
वो भी शिकार है तंत्र के चक्र में भूख की।     

फ़ैशन का चक्र

फ़ैशन आजकल में 
क्या छोड़ूँ और क्या तो पहनूँ 
मैचिंग बीते ज़माने की बात है
अब ज़माना है कंट्रास्ट का 
डिफ़रेंट मिक्स एंड मैच 
लेकिन 
लाल के साथ नीला बिल्कुल नहीं 
रेड का फ़ोबिया ख़त्म हो चुका है अब 
आज़ादी के मायने की बात न करना
ये ग़ुलामी बड़ी मोहक है।

एकदम घुप्प अँधेरे में चलता है चाक
न कुम्हार दिखता है न दिखता है आकार
घूम-घूमकर लौटता है फ़ैशन
फ़सल कोई बोता है 
काटता है कोई और
यही है फ़ैशन का चक्र।

झूठ का चक्र

एक झूठ बोला
बचते-बचाते दो-चार झूठ और बोले
एक नहीं, सौ नहीं, हज़ारों-हज़ार झूठ बोले 
आख़िर में लड़खड़ाती ज़ुबान में 
थक-हारकर सच बोला।

सच धैर्य नहीं खोता
झूठ की मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं करता
झूठ करता है वो सब कुछ 
जिसे करने की सच सोचता भी नहीं 
तर्क में नहीं 
कुतर्क में घुटता है दम झूठ का।

मौसम का चक्र

थोड़ा-थोड़ा सब कुछ लेने के फेर में 
नहीं मिलता कुछ भी  
मौसम बदलता है तो बदलती है सोच
अपने चरम पर पहुँचता 
हर चार माह में बदलता
मौसम भी बनाता है हमें निकम्मा।

प्यार का चक्र

उछालती जब उसे बाँहों में
दिल काँपता था मेरा
उसकी दूध की उल्टी से
सूखता था मेरे भीतर का पानी 
एक वृक्ष की तरह
उसकी जड़ें मेरे भीतर तक फैलती चली गईं।

सोचती 
जब अठारह का हो जाएगा
छोड़ दूँगी घने जंगल में
बर्फ़ीले पहाड़ों के ऊपर होगा उसका मचान 
अंतहीन आकाश में उड़ते देख
पीठ फेर लूँगी।

बदलती दुनिया, जोखिम, रोमांच से प्यार 
बड़ी लंबी उछाल है उसकी
जाने क्या होता है अब मेरे भीतर 
फड़फड़ाती हूँ उसे उड़ते देख
अपने हाथों को ढाल बना
उड़ना चाहती हूँ उसके संग।

प्यार का ये चक्र
घूमकर आ ठहरता है उसी जगह
जहाँ... मैं सोचती हूँ 
बस एक बरस और। 

हँसने का चक्र

हँसने-हँसाने का दूसरा नाम है जीवन  
लेकिन जाने कब कैसे और क्यों
हँसना छोड़ दिया हमने 
हँसी को छोड़ दौड़ के पीछे लग गए
धीरे-धीरे हँसी सेल्समेन, सेल्सगर्ल्स और
क्रेडिट कार्ड बेचने वालों की हो गई
हँसी को शिष्टाचार के संग रोज़गार बनाया उन्होंने
ठगे जाने के भय से न हँसे न मुस्कुराए
रो भी न सके हम।

हँसना ज़रूरी है निरोगी काया के लिए
हँसी क्लब में प्रवेश के लिए मोटी फ़ीस भरी
हँसने के नाम पर 
कैसी डरावनी आवाज़ें निकालने लगे हम
हमेशा बुरा माना जाता है बिना वजह दाँत दिखाना 
नदी किनारे मिलती है सच्ची हँसी
नदियों को हमने जाने कब का बेच दिया
हँसने का कोई चक्र नहीं
बिकने की कोई उम्र नहीं।  

रोने का चक्र

तुमने जन्म लिया तो रोए
भूख लगी तो रोए
मन की कोई चीज़ न मिली तो रोए
अपनों से बिछुड़ने पर रोए, ख़ूब रोए 
ख़ुशी में फूट-फूटकर नहीं रोए कभी
आँखें गीलीं हुईं और तुमने कहा
ये आँसू ख़ुशी के आँसू हैं।
फिर 
तुमसे कहा गया
बात-बात पर रोना अच्छी बात नहीं
रोने से नहीं मिलता कुछ भी
तुमने 
अपने भीतर आँसुओं का कुआँ बना लिया
जो मारे ठंड के जम गया 
बहुत दिन से नहीं रोए सोचकर
अचानक तुम रोए ख़ूब रोए
जीवन में रोने से नफ़रत करना भी
एक रोना है।   

सोचने का चक्र

जब 
महानगरों को देखा 
चकाचौंध में उनकी घिग्गी बँध गई मेरी
भाषा ने साथ छोड़ दिया
ख़ुद की भाषा को छोड़
लपलपाने लगी दूसरे की भाषा में
स्वचालित सीढ़ियों से डरते 
पानी को बिकते, ख़ुद को फिकते देख
अपनी जगह लौट आई
लौटकर 
गाँवों, नगरों को महानगर में बसाने का सोचने लगी
नगर, उपनगर, गाँव, देहात, क़स्बे, महानगर
चकाचौंध, घिग्गी, लपलपाहट, सनसनाहट 
नींद ने मेरा साथ छोड़ दिया
नींद को बुलाने के लिए 
एक से हज़ार तक गिनती गिनने लगी 
गिनते हुए गिनती के बारे में सोचने लगी। 

यात्रा का चक्र

बंजर ज़िंदगी को पीछे छोड़ देना
बारिश को छूना चाँद बादलों से यारी
नंगे पाँव घास पर चलकर ओस से भीग जाना
ख़ानाबदोश और बंजारों के छोड़े गए घरों को देखना
ख़ुद को तलाशना उन जैसा हो जाना
न होने पर ईर्ष्या का उपजना
प्राचीन इमारतों के पीछे भागना
स्थापत्य मूर्तियों को निहारना
एक पल में कई बरस का जीवन जी लेना
ट्रेन का छूट जाना, जेब का कट जाना 
किसी के छूटे सामान को देखकर
बम आर.डी.एक्स. की आशंका से सिहर जाना
घर पहुँचना और पहुँचकर घर को गले लगा लेना
यात्रा का पहला नाम डर, दूसरा फ़क़ीरी।

बहुत दिनों से जाना चाहती हूँ यात्रा पर
लेकिन जा नहीं पा रही हूँ
एक हरे भरे मैदान में
तेज़, बहुत तेज़ गोल चक्कर काट रही हूँ
यात्रा के चक्र को पूरा करते
ख़ुद को अधूरा छोड़ रही हूँ।

नींद और स्वप्न का चक्र

नींद के गुण-दोष 
स्वप्न के गुण-दोष हैं 
अनिद्रा की शिकार नहीं 
फिर भी
नींद नहीं मेरे पास।
कहती है नींद
ख़ुद के 
लिए जियो
स्वप्न कहते हैं
औरों के लिए जियो।
न जागती हूँ, न रोती हूँ
नींद से भरी 
स्वप्न की पगडंडी पर चलती हूँ। 

जीवन का चक्र

जीवन क्या है
कभी हँसना, कभी रोना
कभी मिलना कभी बिछड़ना
कभी सुख की कामना करना
कभी दुख को परे धकेलना
कभी दुनिया पर तंज़ कसना
कभी मोह-माया को गले लगाना
कभी नंगे पाँव
इस भवसागर से कूच कर जाना।

जीवन की शुरुआत तुमसे 
अंत भी तुमसे
बीच में मध्यांतर
मध्यांतर में एक नहीं, कई मोड़
किसी एक मोड़ का ज़िक्र
चक्र को अधबीच में रोक देगा।

तुमने
एक नहीं, हज़ार इच्छाओं को जन्म दिया
हर इच्छा ने पूरे होने तक
कई बार गिराया, उठाया कई बार तुम्हें
कुछ ने तुम्हें बौना कर अपना क़द बढ़ाया
किसी एक को जन्म लेने से पहले
तुमने मार डाला
कौन था वो
जिसे जन्म लेने से पहले तुमने पैनेपन के साथ मारा
रोते हो हर रात उसके संग
कि तुमने उसे जन्म नहीं लेने दिया
बेल की तरह तुमसे लिपटी
तुम्हें तनकर रहना जो सिखाती
उस अजन्मी इच्छा का नाम है
जीवन का चक्र। 

कहने सुनने से जो छूट गया
जो कहा नहीं गया अभी तक
जो रचा नहीं गया अभी तक
हर बार कहने में जो छूटता है
वहीं से शुरू होता है जीवन का चक्र।

 
स्रोत :
  • रचनाकार : नीलेश रघुवंशी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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