माँझी का पुल

manjhi ka pul

केदारनाथ सिंह

केदारनाथ सिंह

माँझी का पुल

केदारनाथ सिंह

और अधिककेदारनाथ सिंह

     

    मैंने पहली बार
    स्कूल से लौटते हुए   
    उसकी लाल-लाल ऊँची मेहराबें देखी थीं
    यह सर्दियों के शुरू के दिन थे
    जब पूरब के आसमान में
    सारसों के झुंड की तरह डैने पसारे हुए
    धीरे-धीरे उड़ता है माँझी का पुल

    वह कब बना था
    कोई नहीं जानता
    किसने बनाया था माँझी का पुल
    यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को
    अब भी परेशान करता है
    ‘तुम्हारे जन्म से पहले’ —
    कहती थीं दादी
    ‘जब दिन में रात हुई थी
    उससे भी पहले’—
    कहता है गाँव का बूढ़ा चौकीदार

    क्या यह सच नहीं है कि एक सुबह इसी तरह
    किनारे की रेती पर
    पड़ा हुआ मिला था माँझी का पुल
    बंसी मल्लाह की आँखें पूछती हैं!

    लाल मोहर हल चलाता है
    और ऐन उसी वक़्त 
    जब उसे खैनी का ज़रूरत महसूस होती है
    बैलों के सींगों के बीच से दिख जाता है
    माँझी का पुल

    झपसी की मेड़ें—
    उसने बारहा देखा है—
    जब चरते-चरते थक जाती हैं
    तो मुँह उठाकर 
    उस तरफ़ देखने लगती हैं
    जिधर माँझी का पुल है
    माँझी के पुल में कितने पाए हैं?
    उन्नीस—कहता है जगदीश
    बीस—रतन हज्जाम का ख़याल है
    कई बार यह संख्या तेईस या चौबीस तक चली जाती है
    क्या दिन के पाये
    रात में कम हो जाते है?
    क्या, सुबह-सुबह बढ़ जाते हैं
    माँझी के पुल के पाए?

    माँझी के पुल में कितनी ईंटें है?
    कितने अरब बालू के कण?
    कितने खच्चर 
    कितनी बैलगाड़ियाँ
    कितनी आँखें
    कितने हाथ चुन दिए गए हैं माँझी के पुल में
    मेरी बस्ती के लोगों के पास
    कोई हिसाब नहीं है 

    सचाई यह है
    मेरी बस्ती के लोग सिर्फ़ इतना जानते हैं
    दुपहर की धूप में
    जब किसी के पास कोई काम नहीं होता
    तो पके हुए ज्वार के खेत की तरह लगता है
    माँझी का पुल

    मगर पुल क्या होता है?
    आदमी को अपनी तरफ़ क्यों खींचता है पुल?
    ऐसा क्यों होता है कि रात की आख़िरी गाड़ी
    जब माँझी के पुल की पटरियों पर चढ़ती है
    तो अपनी गहरी नींद में भी
    मेरी बस्ती का हर आदमी हिलने लगता है?

    एक गहरी बेचैनी के बाद
    मैंने कई बार सोचा है माँझी के पुल में
    कहाँ है माँझी?
    कहाँ है उसकी नाव?
    क्या तुम ठीक उसी जगह उँगली रख सकते हो
    जहाँ हर पुल में छिपी रहती है एक नाव?

    मछलियाँ अपनी भाषा में
    क्या कहती हैं पुल को?
    सूंस और घड़ियाल क्या सोचते हैं?
    कछुओं को कैसा लगता है पुल
    जब वे दुपहर बाद की रेती पर
    अपनी पीठ फैलाकर
    उसकी मेहराबें सेंकते हैं?

    मैं जानता हूँ मेरी बस्ती के लोगों के लिए
    यह कितना बड़ा आश्वासन है
    कि वहाँ पूरब के आसमान में
    हर आदमी के बचपन के बहुत पहले से 
    चुपचाप टँगा है माँझी का पुल

    मैं सोचता हूँ
    और सोचकर काँपने लगता हूँ
    उन्हें कैसा लगेगा अगर एक दिन अचानक पता चले
    वहाँ नहीं है माँझी का पुल!

    मैं ख़ुद से पूछता हूँ
    कौन बड़ा है
    वह जो नदी पर खड़ा है माँझी का पुल
    या वह जो टँगा है लोगों के अंदर?
    _____________________________
    माँझी : उतर प्रदेश और बिहार की सीमा पर स्थित एक गाँव, जहाँ घाघरा नदी पर रेलवे का पुराना पुल है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 17)
    • संपादक : परमानंद श्रीवास्तव
    • रचनाकार : केदारनाथ सिंह
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1985

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