उत्तर और बृहन्नला

uttar aur brihannla

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

उत्तर और बृहन्नला

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    अति असह्य अज्ञात वास जब

    पूरा होने पर आया,

    वीर पांडवों ने तब मन में

    एक अलौकिक सुख पाया।

    उन्हीं दिनों पाकर सहायता

    कुरुपति, द्रोण, कर्ण, कृप की,

    हरी सुशर्मा ने बहु गायें

    चिर वैरी विराट नृप की॥

    मत्स्यराज पर विपद देख कर

    निज कर्तव्य सोच मन में,

    करने को सहायता उनकी

    गए युधिष्ठिर भी रण में।

    सज्जन निज उपकारों का ज्यों

    बदला कभी लेते हैं,

    प्रत्युपकार रूप ऋण त्यों ही

    प्राणों से भी देते हैं॥

    गए भीम, सहदेव, नकुल भी

    करके अस्त्र-शस्त्र धारण,

    पर अर्जुन से कहा नृप ने

    नर्तक होने के कारण।

    इससे उनकी हुई विकलता

    हुआ हृदय में दु:ख अपार,

    प्राय: वेश देख कर ही सब

    करते हैं योग्यता-विचार॥

    उत्तर कुरु के जिस विजयी को

    सब जगदेक वीर कहते,

    अबला बना हुआ बैठा है

    वही आज बल के रहते!

    हाय! प्रकट होने पर हमको

    लोक कौन पदवी देगा?

    वह भीषण अपयश निश्चय ही

    प्राण हमारे हर लेगा॥

    हाय! हाय! धिक्कार हमें है

    छिपे हुए बैठे हैं हम,

    आश्रय-दाता नृप विराट पर

    विपद पड़ी है दारुणतम।

    इच्छा और शक्ति रहते भी

    हम कर्तव्य कर सकते

    हाय तो जी ही सकते हैं

    हम आज हैं मर सकते॥

    कृष्णा का अपमान सभा में

    और विपिन की बाधा घोर,

    रहे झेलते किसी भाँति हम

    करके अपना हृदय कठोर।

    अहो! दैव क्या इतने पर भी

    तुझको दया नहीं आई?

    नरक रूप अज्ञात वास में

    महा असुविधा प्रकटाई!

    आर्य भीम, सहदेव, नकुल युत

    धर्मराज को लेकर संग,

    मत्स्यराज सानंद गए हैं

    करने को रिपु से रण-रंग।

    होने से विपरीत वेश हा!

    हुआ हमारा ही प्रबंध,

    भला वीरता के कामों से

    नाट्यकला का क्या संबंध?

    अच्छा क्यों आप ही अब हम

    चले जाएँ युद्धस्थल में,

    किंतु देखकर वैरी हमको

    जान लेंगे क्या पल में?

    पूर्ण हुआ अज्ञात वास जब

    फिर डर ही क्या है इसका?

    चाहे जो हो किंतु जगत में

    अर्जुन को डर है किसका?

    समय कहाँ पावेंगे फिर हम

    प्रकटित होने का ऐसा?

    मिलता नहीं सुयोग सर्वदा

    जग में जैसे को तैसा।

    अब तो नहीं रहा जाता है

    फिर क्यों यह अवसर खोवें?

    कुछ भी हो, अर्जुन के वैरी

    अब चिर निद्रा में सोवें॥

    निश्चय करते हुए इसी विध

    जाने को सत्वर रण में,

    अस्थिर अर्जुन घूम रहे थे

    नाट्य-भवन के प्रांगण में।

    उसी समय पुत्री विराट की

    थी जिसकी सूरत भोली,

    आकर उनके निकट उत्तरा

    उनसे इस प्रकार बोली—

    “बृहन्नले! इस समय राज्य पर

    कठिन समय जो आया है,

    नीच त्रिगर्तराज ने आकर

    जो उत्पात मचाया है।

    उसके साथ युद्ध करने को

    जिस प्रकार हैं पिता गए,

    अब उससे भी अधिक

    उपद्रव सुने गए हैं नए-नए!

    अधम शिरोमणि दुर्योधन ने

    इसी समय में पहुँच यहाँ,

    करके हरण बहुत-सी गायें

    घेरी नगरी जहाँ-तहाँ!

    भैया उत्तर ही घर पर हैं

    गए युद्ध में वीर सभी,

    फिर भी, बालक होकर भी, वे

    प्रस्तुत हैं युद्धार्थ अभी॥

    कुछ दिन हुए अचानक उनका

    मारा गया सारथी विज्ञ,

    सैरंध्री कहती है तू भी

    है इस गुण में पूर्ण अभिज्ञ।

    कई बार अर्जुन का तूने

    है समुचित सारथ्य किया,

    देकर निज कौशल का परिचय

    उनको अत्यानंद दिया॥

    क्या भैया की भी सहायता

    कर सकता है तू इस काल?

    आशा है, यह बात मानकर

    कर देगा तू मुझे निहाल।

    तुझको अपना ही विचारकर

    इस प्रकार कहती हूँ मैं,

    तुझे ज्ञात है तुझसे जैसी

    तुष्ट सदा रहती हूँ मैं॥”

    सुनकर वचन उत्तरा के यों

    सुखी हुए मन में अति पार्थ,

    फिर क्या कहना अनायास ही

    जो मनमाना मिले पदार्थ।

    किंतु हर्ष को प्रकट करके

    बोले वे कुछ सकुचाते,

    धीरों के गंभीर हृदय के

    भाव नहीं ऊपर आते॥

    “भला नाचने-गाने वाले

    क्या जानें ऐसी बातें?

    करनी पड़ती हैं कितनी ही

    ऐसे समय नई घातें।

    पर जब और उपाय नहीं है

    यह आज्ञा पालेंगे हम,

    प्रेम-भरा अनुरोध तुम्हारा

    किस प्रकार टालेंगे हम?”

    नववल्ली-सी खिली उत्तरा

    फैली मुख पर छटा नई,

    प्रकृत मंद गति को तज कर वह

    झट उत्तर के निकट गई।

    आख़िरकार युद्ध करने को

    राजकुमार हुआ तैयार,

    मानो मन्मथ ने धरणी पर

    धारण किया नया अवतार॥

    तब कृतज्ञता-पूर्ण दृष्टि से

    सैरंध्री की ओर निहार,

    बृहन्नला भी प्रस्तुत होकर

    पाने लगा प्रमोद अपार।

    देख उसे विपरीत ढंग से

    कवच पहनते हुए विशाल,

    हँसती हुई उत्तरा उससे

    बोली ऐसे वचन रसाल—

    “बृहन्नले! रण में जाकर तू

    मुझको नहीं भूल जाना,

    कुटिल कौरवों को परास्त कर

    उनके वस्त्र छीन लाना।

    उनसे रंग-बिरंगी गुड़ियाँ

    मैं सानंद बनाऊँगी

    और खेलती हुई उन्हीं से

    मैं तेरा गुण गाऊँगी॥

    सुन कर उसके वचन पार्थ यों

    उसे देख कुछ मुसकाए,

    उत्तर दिए बिना ही फिर वे

    स्यंदन शीघ्र सजा लाए।

    कहते नहीं श्रेष्ठ जन पहले

    करके ही दिखलाते हैं,

    कार्य सिद्ध करने से पहले

    बातें नहीं बनाते हैं॥

    रथारूढ़ होकर फिर दोनों

    समर भूमि को चले सहर्ष,

    चकित हुआ मन में तब उत्तर

    देख पार्थ-पाटव-उत्कर्ष।

    पुर से निकल शीघ्र पहुँचे वे

    उसी शमी पादप के पास,

    शस्त्र छिपा रक्खे थे जिस पर

    पांडु-सुतों ने बिना प्रयास॥

    इंद्रधनुष-सम विविध वर्णमय

    वीरों के वस्त्रों वाली,

    चपल चंचला के प्रकाश-सम

    चमकीले शस्त्रों वाली।

    पवन-वेग मय वाहनवाली

    गर्जन करती हुई, बड़ी,

    उसी जगह से घनमाला-सी

    कौरव सेना दीख पड़ी॥

    सूर्योदय होने पर दीपक

    हो जाता निष्प्रभ जैसे,

    उसे देखकर उत्तर का मुख

    शोभा-हीन हुआ तैसे।

    क्षण भर में ही उसका पहला

    साहस सारा लुप्त हुआ,

    जगा हुआ उत्साह भीति को

    जागृत करके सुप्त हुआ॥

    बोला तब भय से कातर वह

    शक्ति भूल अपनी सारी—

    “देखो, देखो, बृहन्नले! यह

    सेना है कैसी भारी!

    इसे देखकर धैर्य छूटता

    अंग आप ही हैं थकते,

    मैं क्या, इसे स्वयं सुर-गण भी

    रण में नहीं हरा सकते॥

    मैं किस भाँति लड़ूँगा इससे,

    लौटाओ रथ-अश्व अभी,

    सैन्य-सहित जब पिता आएँगे

    होगा बस अब युद्ध तभी।

    बिंदु और सागर की समता

    हो सकती है भला कहीं!

    गुरुतम गिरि से गज-शावक को

    टक्कर लेना योग्य नहीं॥”

    देख उसे भयभीत धनंजय

    बोले यों उससे स्वच्छंद—

    “यह क्या, राजकुमार! अभी से

    पड़ते हो तुम कैसे मंद?

    वीर पिता के पुत्र अहो! तुम

    इस प्रकार करते आक्रंद,

    सावधान! चंचल होकर यों

    मत देना अरि को आनंद॥

    भला अभी तक शत्रु जनों ने

    है ऐसा क्या कार्य किया—

    जिसने तुमसे वीर पुत्र का

    हृदय अचानक कँपा दिया?

    किसी कार्य को देख प्रथम ही

    शंकित होना ठीक नहीं,

    यश विशेषता से ही मिलता

    है यह बात अलीक नहीं॥

    स्वार्थ-सिद्धि के लिए लोक में

    दुराचार जो करते हैं,

    दुराचार ही के कारण वे

    दुर्बल होकर मरते हैं।

    दुर्योधन-दु:शासनादि हैं

    महा दुराचारी धिक्-पात्र,

    आओ उनका वध करने में

    बन जावें हम कारण-मात्र॥

    जैसा निश्चय कर आए हो

    अब वैसा ही काम करो,

    धैर्य धरो, मत डरो विघ्न से

    आगे बढ़कर नाम किरो।

    जो कुछ गर्व जना आए हो

    देखो, वह खो जाए नहीं,

    करो भूल कर काम ऐसा

    सिर नीचा हो जाए कहीं॥”

    इस प्रकार अर्जुन ने बहु विध

    दिया उसे उत्साह बड़ा,

    पर भय के कारण उसका कुछ

    उस पर नहीं प्रभाव पड़ा।

    बोला वह—“चाहे जो हो पर

    इससे लड़ सकूँगा मैं,

    बृहन्नले! रथ को लौटा दे

    तुझे बहुत धन दूँगा मैं॥”

    अर्जुन को यों उत्तर दे कर

    उत्तर रथ से उतर भगा!

    तब वे उसे पकड़ने दौड़े

    मन में कुछ-कुछ क्रोध जगा।

    तत्क्षण दुर्योधन के दल में

    अट्टहास यों भास हुआ—

    चंचल करता हुआ जलधि को

    मानों इंदु-विकास हुआ॥

    “क्षत्रिय होकर रण से डरते

    है तुमको धिक्कार अरे!”

    यों कह धावित हुए पार्थ जब

    उड़े केश-पट पवन भरे।

    कच-कलाप जा पकड़ा उसका

    स्वच्छ पाट का-सा लच्छा,

    “ऐसे जीने के बदले तो

    है मर जाना ही अच्छा॥

    अहो! तुच्छ जीवन पर तुमको

    है इतनी ममता मन में,

    हँसते-हँसते मर जाते हैं

    धीर धर्म के साधन में।

    क्षत्रिय होकर पीठ दिखाते

    निश्चय ही यह है दुर्दैव,

    क्या कर्तव्य-विमुख होकर भी

    जो सकते हो, कहो, सदैव?

    ऐसा हाल अभी से है जब

    तब आगे कैसा होगा?

    वृद्धकाल क्या कभी किसी का

    युवाकाल जैसा होगा?

    कीर्तिमान जन मरा हुआ भी

    अमर हुआ जग में जीता,

    मरे हुए से भी जीते जी

    है अपगीत गया बीता॥

    डरो नहीं तुम युद्ध करना

    सबसे स्वयं लड़ूँगा मैं,

    बनो सारथी ही तुम मेरे

    आँच आने दूँगा मैं।

    होता अहो! सुभद्रानंदन

    यदि अभिमन्यु आज इस काल,

    तो यह अभी जान लेते तुम—

    कितना साहस रखते बाल॥”

    यों कह कर अर्जुन ने अपना

    पूरा परिचय दिया उसे,

    चकित, विनीत और फिर निर्भय

    इस प्रकार से किया उसे।

    उसी शमी पादप के नीचे

    फिर वे उसको ले आए,

    और दिखाकर अपने आयुध

    उसके द्वारा उतराए॥

    वेश बदलने लगे पार्थ तब

    कौरव भ्रमित हुए भ्रम से,

    धूलि-धूसरित रत्न शाण पर

    लगा चमकने क्रम क्रम से!

    दुर्योधन की सब आशाएँ

    मिट्टी में मिल गई वहीं,

    होता है परिणाम कहीं भी

    बुरे काम का भला नहीं॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 94)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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