भिखारी के लिए लोरी

bhikhari ke liye lori

अनाम कवि

अनाम कवि

भिखारी के लिए लोरी

अनाम कवि

और अधिकअनाम कवि

    आख़िर, कब बनोगे तुम सच्चे भिखारी

    अभी तो टुकड़ा-टुकड़ा बेचकर ख़ुद्दारी

    मिटाते फिरते हो भूख

    कब हो जाओगे संतुष्ट, एक दिन की भीख पर

    सनत के भेष में भूख की माला जपते, तुम नापते फिरते हो धरती

    दुत्कार और तिरस्कार को झाड़ देते हो धूल की तरह

    तुम रहते हो भयभीत कल से

    बदलते मौसम और बीमारी से

    कोई भी शासन छीन नहीं पाता, तुम्हारा साम्राज्य

    जो फैला है, गलियों से दरवाज़ों तक

    तुम्हारे होने से सबके बीच

    भय प्रकाशित होता है

    साधु-संतों की देखा-देखी

    कामचोरी और आलस्य के खोल में दुबके

    पूरे अज्ञान और गंदगी के साथ

    तुम भी फैलाने लगे हाथ

    बहुत ही बेसुरे और कनफोड़ू सुरों से

    लेने लगे नाम ईश्वर का

    बड़ी सफ़ाई से तुम भूख और नींद का

    कर लेते हो जतन

    लेकिन कभी-कभी उड़ जाती है तुम्हारी नींद

    जब कोई तुम्हारे बीच से चला जाता है चुपचाप

    ठंडी रातों में प्लेटफ़ॉर्म पर

    मर जाता है लू से ठोकर खाकर

    अपने ज़ख़्म, बीमारी और भूख के साथ

    कोई चला जाता चुपचाप

    तुम्हारे कटोरे भर पानी में

    उतर रहा है चाँद रोटी की तरह

    जी रही है थकान फटे जूतों से बाहर

    डरकर अपने आपसे

    तुम जैसों के लूट लिए गए हिस्से को

    लौटाते हैं लोग टुकड़ा-टुकड़ा

    तुम्हारे हिस्से के अन्न की कोई जाति, कोई धर्म नहीं

    फैले हुए हाथों में

    आए दया के उपहार में, सो जा

    नींद की अतल गहराइयों में विसर्जित कर थकान

    सो जा, भीख से आई समृद्धि के सपनों में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक अनाम कवि की कविताएँ (पृष्ठ 126)
    • संपादक : दूधनाथ सिंह
    • रचनाकार : अनाम कवि
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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