शैतान

shaitan

आज भी देखे जा सकते हैं

उसी स्थान पर

हरू के त्रिशूल और चिमटा गढ़े हुए

पूजे जाते हैं श्रद्धा से

बुज़ुर्ग बताते हैं

ताँबे की खानें हुआ करती थीं

इस स्थान पर कभी

दिन भर कठोर चट्टान को तोड़-तोड़कर

ताँबा निकाला करते थे टमटे

रात-रात भर पिघलाकर उसे

पत्थर-मिट्टी से अलग किया करते थे

अपनी कला और श्रम से

गढ़ते सुंदर-सुंदर गगरियाँ, पराद, तौले

और भी ज़रूरी बर्तन

गाँव-गाँव फेरी लगाकर बेचते उन्हें

ये ही था उनकी आजीविका का एकमात्र साधन

उन दिनों पहाड़ में

ख़ूब बिकते थे ताँबे के बर्तन

स्टीलनैस-स्टील की चमक नहीं पहुँची थी यहाँ

इसी बीच एक शैतान पैदा हुआ यहाँ

कौन था?

कहाँ से आया?

किसी को पता नहीं

पड़ गई इस ताँबे में उसकी नज़र

रात में आकर गटक जाता सारा पिघलाया हुआ ताँबा

टमटे देखते रह जाते यह भयानक दृश्य

बहुत परेशान हो चले

उनके पेट पर लात थी यह जबरदस्त

उनका दर्द देखा नहीं गया

हरू से

उसने शैतान का अंत किया

और गाढ़कर अपना त्रिशूल-चिमटा

पता नहीं किस दिशा को चल दिया

तब से लोग हरू को

उसी स्थान पर पूजते रहे हैं

उसी तरह गढ़े हैं त्रिशूल-चिमटा

लेकिन शैतान फिर से लौट आया है

रूप बदलकर

राजधानी तक लंबे हैं उसके हाथ

चेहरे से नहीं लगता है वह

बिल्कुल भी शैतान-सा

आवाज़ किसी देवदूत-सी

नहीं रहा भले अब ताँबा वहाँ

वह खड़िया खाने लगा है

और आस-पास के जंगल भी

पीने लगा है नदी

रेता-बजरी साथ उसके

हरू मंदिर को उसने

बना दिया है भव्य

दूर से ही दिखाई दे जाते हैं

चारों ओर लहराते हुए लाल निशान

कंगूरे पर चमकता पीत कलश

मय त्रिशूल

महिने में एक बार

लग जाता है वहाँ भंडारा

ख़ूब छक कर खा जाते हैं

गाँव के लोग हलवा-पूरी

और गुण गाते हैं उसकी भक्ति-भाव के

हरू मंदिर के आस-पास भी

गहरी सुरंगें बना चुका है वह

उसकी भूख बढ़ती ही जा रही है

वह दिन दूर नहीं

जब गाँव के गाँव

उसकी पेटी में समा जाएँगे

और पेटी में बैठ लोकतंत्र मुस्कराएगा

तब भी क्या

हरू के त्रिशूल-चिमटा ऐसे ही गढ़े रहेंगे?

कब तक

कंगूरे के कलश की शोभा बने रहेंगे?

या फिर

हरू के इंतज़ार में बैठे रहेंगे?

स्रोत :
  • रचनाकार : महेश चंद्र पुनेठा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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