बेघर

beghar

ताले लगाने के लिए दरवाज़े नहीं थे

सो सँभालने के लिए चाभियाँ थीं

उसके आने से पहले

कोई उसके लिए दरवाज़े खोलता था।

घर नहीं था तो आँगन नहीं था

आँगन नहीं था तो चहलक़दमी की आदत थी

दीवारें नहीं थीं तो खिड़कियाँ नहीं थीं

खिड़कियाँ होने से झाँकने की आदत थी

किसी के आने की आस थी

कोई इतना ज़्यादा भी नहीं आता था कि

वह यह सोच पाता कि काश इस समय कोई आए

घर के होने से

जीवन में किसी तरह की खटखटाहट थी।

कार में वह बिना घर के शहर में रहता है

गाँव के घर में खाट थी

जिस पर वो पाँव फैलाकर बैठता और पसरकर सोता था

शहर की बुलैरो में नरम गद्देदार सीट है

जिस पर वो क़रीने से बैठता है और

रात में चादर बिछाकर घुटने मोड़कर सोता है।

गाँव के पाँच एकड़ बंजर खेत ने

उसे बेघर बंजारा बना दिया है

बंजारों जैसी मस्ती नहीं है उसके पास

वह उनींदे सपनों में खोया रहता है

शहर में

साबुत घरों को टूटते और फिर बनते देखता है

घर के ढहते ही

मलबा उसके भीतर जगह बनाने लगता है

टूटते घर का हर एक कोना बजता है उसके भीतर

एक कोना चूल्हे पर खदकती देगची के लिए

एक कोना घिनौची के लिए

एक कोना आँगन से आकाश ताड़ने के लिए

एक कोना पेड़ों से झर गए पत्तों और

चिड़ियों के घोंसलों के लिए

एक कोना जिसमें सब अँट जाए

एक जीने के लिए और

एक कोना ठंडी साँस लेकर मरने के लिए

सन्नाटे से भरा सोचता है वह

काश गाड़ियों के भीतर भी कोने होते।

गाड़ी की चाभी को चमकाता फिरता

क़िस्तों के ख़त्म होने का इंतज़ार करता

वह रेलगाड़ियों को आते और जाते देखता है

पाँव सीधे करता है प्लेटफ़ॉर्म की बेंच पर

नल से ओक से पानी पीता है

पटरियों पर करता है स्नान

लोटे की परछाईं तैरती है पानी में

घर की याद आती है जो सताती है बहुत

वह ट्रेन पर ऐसे चढ़ता है

चढ़ रहा हो जैसे घर की सीढ़ियाँ

मुसाफ़िरों से ऐसे बतियाता है

बतिया रहा हो जैसे पड़ोसियों से

जाती हुई रेलगाड़ियों को करता है विदा

विदा किया जैसे उसे उसके खेत-खलिहान ने

उसके मन और तन पर कई खरोंच है

लेकिन क़िस्तों की बुलैरो पर

एक भी खरोंच नहीं आने देता

बुलैरो उसके मन की खिड़की है

जिस पर कोई परदा नहीं है।

शहर में कार को अपना घर बनाए

बेघर आदमी को

कार के नहीं, घर के सपने आते हैं।

स्रोत :
  • रचनाकार : नीलेश रघुवंशी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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