बंगाल का काला जादू

bangal ka kala jadu

अनामिका

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बंगाल का काला जादू

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    ''रेलिया बैरी, जहजिया बैरी,

    बैरी नोकरिया हो राम'

    —देखा है औरतों को गाते बिरहा के गीत,

    कोसते हुए सौतन-बैरन नौकरियों को

    जिनके चक्कर में पियाओं को गौने के बाद ही

    चला जाना होता था कलकत्ता

    रंगून,

    कारू-कामाख्या!

    टुकुर-टुकुर रस्ता निहारती,

    कौए से कभी, कभी राही-बटोही से

    पूछती फिरती थीं

    आठ से साठ बरस तक की

    बिरहिनें

    कि पिऊ उनके मिले कि नहीं बाट में!

    बेचारे राही-बटोही भी क्या जानते होंगे

    कौन पिऊ हैं उनके,

    वे तो ख़ुद ही होते होंगे किसी के

    बिछुड़े पिऊ!

    पर फिर भी जैसे बहला देती थी।

    सीता को त्रिजटा

    कुछ भी बहाने बनाकर,

    वे कुछ तो कह ही देते होंगे ऐसा

    जिससे कि धीरज बँधे!

    बंगाल के काले जादू की चर्चा तो

    आपने भी सुनी ही होगी!

    गोपीनाथ की जो वो लोककथा गाते हैं जोगी,

    उसमें बंगाल की ही तो हैं सातों जादूगरनियाँ

    जो करती हैं वाक्-युद्ध

    सिद्ध जोगियों से,

    देती हैं उनको जवाब

    तुर्की-ब-तुर्की

    और पलट देती हैं पासा!

    तेलिन, धोबिन, काछिन, भटियारिन,

    भिश्तिन, चमारिन और डोमिन—

    सात प्रगल्भा नायिकाएँ

    किसी से नहीं डरतीं

    और भाशिक व्यंजना ही है उनका हथियार,

    सधे हुए वे वाक्य ही तो हैं उनका

    तीर, तमंचा, भाला, बर्छ, तलवार—

    जिनसे बिंधता है हृदय सीधा,

    एक बूँद ख़ून नहीं बहता!

    बहते हैं बस आँसू—

    मिट्टी पर गिरकर जो बन जाते हैं चमचम आईना।

    प्रतिपक्षी की चुँधिया जाती हैं आँखें

    और फिर जब खुलती हैं—

    तो उनमें दिखती है उनको

    अपनी ऐसी सूरत

    कि वे डर जाते हैं अपने से!

    भाषा ही वह काला जादू है

    जो आपको आपके

    अपने चेहरे से डरा सकती है—

    वही है कटार, वही आईना—

    यह हमने जाना था

    बंगाल की उन जादूगरनियों से

    जिनकी विद्या काली विद्या ही कही गई

    क्योंकि था भाषा का वैभव वहाँ!

    उनसे बहत ज़्यादा डरती थीं सब बिरहिने

    कि जिसने पोस लिया

    सुग्गा बनाके

    जालंधर बाबा को,

    बबुआ के बाबू को पोस नहीं ले कहीं!

    उनके बारे में ही रह-रहकर होते थे

    उनको अंदेसे

    कि भेड़-बकरी बनाकर

    पोस ही लिया होगा

    उनके पियाओं को,

    तब ही वे कभी नहीं लौटे!

    बंगालिनें अब तक हमारी तरफ़

    कहलाती हैं जादूगरनी कि

    उनकी उन मदमस्त आँखों में

    भाषा की पाँखें खुल जाने का संतोष

    सम्मोहन बनकर खिल जाता है।

    और जो भी पास जाता है—

    जीव-जंतु और पंछी-पुरुख—

    ‘आमी तोमाके भालोबाषी' वाले

    चक्कर में पड़ जाता है!

    इस डर का ही

    पुनर्जन्म है यह सवाल

    जो पूछती है बिरहिनी अब

    मुन्नी मोबाइल पर अपने पियाओं से—

    कैसे हैं? के पहले कहाँ हैं, जनाब?”

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनामिका
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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