कलकत्ता में प्रेम

kalkatta mein prem

बजरंग बिश्नोई

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कलकत्ता में प्रेम

बजरंग बिश्नोई

और अधिकबजरंग बिश्नोई

    अगर कोई कविता लिख रहा है

    और कविता प्रेम पर

    केंद्रित होती जा रही है

    तो उसमें से आदमी को हटा दो

    आदमी को नहीं हटा पा रहे हो

    तो औरत को हटा दो

    अगर दोनों को नहीं हटा पाते हो

    तो प्रेम को हटा दो

    कविता की ट्राम कलकत्ते में चलती है

    कविता लिखना

    ऐसा काम नहीं है जैसे

    झरने को गिरते देखकर

    फ़ोटो उतार लेना

    फ़ोटो में झरना फ़्रीज़ हो जाता है

    लेकिन अस्ल झरना बहता रहता है

    कविता में

    आदमी भी

    औरत भी

    और अस्ल में चल रहा प्रेम भी

    फ़्रीज़ हो जाता है

    कविता में प्रेम लिखने वाला

    प्यार का दुश्मन

    इंतिख़ाब आलम हो जाता है

    मुझे इंतिख़ाब आलम नहीं बनना है

    प्रेम बालू की तरह

    कविता की मुट्ठी में नहीं रुकता है

    प्रेम अपनी पटरी पर चलता है

    ट्राम की तरह

    रेल की तरह नहीं

    वह ठहरकर इंतिज़ार कर सकता है

    ट्राम की पटरियों पर

    तीन ईंटें रखकर

    दो पतली लकड़ियाँ जलाकर

    छोटे से एल्युमिनियम के बर्तन में

    खिचड़ी पकाती फटी धोती पहने

    उस औरत के पटरी से

    चूल्हा सरकाकर हटाने तक

    गाँठ बाँधकर रखी है

    कि कहीं कविता से

    ज़ख़्मी हो जाए

    कोई प्रेम

    कहीं दफ़्न हो जाए

    कविता के साथ प्रेम

    कलकत्ता में ही

    स्रोत :
    • रचनाकार : बजरंग बिश्नोई
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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