अव्यक्त

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विष्णु खरे

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विष्णु खरे

और अधिकविष्णु खरे

    एक दिन यह हुआ

    (मैं इसके लिए कोई कारण नहीं दे सकता)

    कि दुपहर की छुट्टी के बाद स्कूल लौटकर

    मैं मुनिसपैल्टी की इमारत की ऊँची दीवार से घिरे

    असार्वजनिक बग़ीचे की एक बैंच पर बैठा रहा—पिता के तबादले ने

    यह अभूतपूर्व सुविधा मुझे हाल ही में दी थी—

    मेरी पीठ की ओर शोर था इतवारी बाज़ार को जो बृहस्पति को भी

    वहीं लगता था

    और सामने से हर चालीस मिनट बाद स्कूल के घंटे की आवाज़ आती थी

    इस एहसास के साथ कि वहाँ दसवी ‘अ’ में सब बैठे होंगे

    सामने की बैंच पर मेरे दोस्त मदन और निर्मल, रमेश भाटे और सुरेंद

    और दाईं ओर लड़कियों की बैंच पर सिंधी देविका और पंजाबी रमेश कुमारी

    छह फुट से भी ज़्यादा लंबे ए. पी. श्रीवास्तव लोअर मैथमैटिक्स पढ़ाकर

    निकले होंगे

    और अब पूरी कक्षा उठकर अपने ही क़द के यादव मास्साब से केमिस्ट्री

    पढ़ने जा रही होगी

    बग़ीचा जिसमें मैं बैठा था एकदम सूना था—

    मैं उस समय भी इतना डरपोक था कि माली सरीखी कोई चीज़

    दूर से भी नज़र आती तो मैं बेसाख़्ता स्कूल की ओर रवाना हो जाता

    और जैसा मैंने कहा मेरे आस-पास सिर्फ़ दूर से आती हुई आवाज़ें थीं

    जिन्हें मैं धुँधले रूप से पहचान रहा था

    मैं यह भी साफ़ कर दूँ कि मैं पूरी तरह से होशोहवास में था

    और वह जगह भूत-प्रेत की अफ़वाहों से मुक्त थी

    किंतु अचानक उस क्षण और उसके बाद

    वहाँ बैठे रहना मेरे लिए दूभर हो गया—एक अजीब साँसत में था मैं,

    एक अव्यक्त सुखद भय से घिरता हुआ

    एक ओर तो मैंने करुण रूप से महसूस किया कि चीज़ें

    मेरी उपस्थिति के बिना भी बदस्तूर हो रही हैं और होती रही थीं

    और दूसरी तरफ़ यह कि मैं बेख़बर था

    कि जब मैं अपने विश्व में व्यस्त रहता हूँ

    तो एक वृहत्तर संसार निर्लिप्त बेपरवाही से अपनी हलचल में डूबा रहता है

    भयावह क्षण था वह अपने सब कुछ परिचित से कटने का

    और एक अस्पृश्य विराट से जुड़ने का—

    (उस समय मेरे पास ये शब्द नहीं थे जिनका यहाँ इस्तेमाल हो रहा है)

    और तब मैंने सोचा पिता और बड़े भाई के बारे में

    जो मुझसे और एक-दूसरे से सैकड़ों मील दूर

    अपने-अपने काम पर होंगे

    और छोटे भाई के बारे में भी जो उसी स्कूल की किसी निचली कक्षा में होगा

    जिससे भाग कर मैं यहाँ बैठा हूँ—

    मैं यह नहीं कहूँगा कि वह मेरे ‘दृष्टिकोण के विस्तृत होने’ का क्षण था

    किंतु यह अवश्य है कि उसके बाद अपनी परिचित चीज़ों और लोगों को

    उसके पहले की तरह देखना मेरे लिए कठिन हो गया

    और अपने होने और सुबह, रात और ऋतुओं के बदलने में

    मेरी दिलचस्पी कुछ और बढ़ने लगी

    और मैं उठा

    क्योंकि फिर वहाँ उस बग़ीचे की बैंच पर बैठने में कोई राहत नहीं थी

    और स्कूल में डैस्क पर बैठने में कोई असुविधा—हाँ मैंने यह ज़रूर सोचा था

    कि किसी किसी को यह बात बतानी है

    लेकिन बस्ता किसी को यह बात बतानी है

    लेकिन बस्ता लिए हिए जब मैं वापस पहुँचा तो सातवाँ पीरियड ख़त्म हो

    चुका था

    और खेलने का सामान दिए जान की वजह से मेरे साथी लौट रहे थे

    जिन्हें मुझे आते देखकर बहुत मज़ा आया। फिर उस माहौल में किसी से

    कुछ भी कहना

    बेमानी था। वे और हँसते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 18)
    • रचनाकार : विष्णु खरे
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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