अतिक्रमण

atikramn

कुमार अम्बुज

कुमार अम्बुज

अतिक्रमण

कुमार अम्बुज

और अधिककुमार अम्बुज

    अतिक्रमण के समाज में जीवित रहने के लिए

    सबसे पहले दूसरे के हिस्से की जगह चाहिए

    फिर दूसरे के हिस्से की स्वतंत्रता

    अनंत है अतिक्रमण के विचार की परिधि

    इसलिए फिर दूसरे के हिस्से का जीवन भी चाहिए

    वासनाएँ नए क्षेत्रों में करती हैं घुसपैठ

    सिद्धांत और सुभाषित बदलने लगते हैं हथियारों में

    समुद्र की तरफ़ अंतरिक्ष की तरफ़

    पाताल की तरफ़

    दसों दिशाओं में लालसाएँ मारती हैं झपट्टा

    फिर मारने की चीज़ के बारे में लंबे प्रचार के बाद

    तय कर दिया जाता है कि वह बचाने की चीज़ है

    जैसे जिसके पास बंदूक़ है वही अमर है

    फिर मनुष्य ही करते हैं मनुष्यों पर अतिक्रमण

    घेरते हुए ख़ुद को वस्तुओं से

    आसक्ति की चाशनी में वे पागते चले जाते हैं

    एक ऐसा समाज जहाँ मानवीय दिखता हुआ हर उपक्रम

    किसी नई वस्तु को क़ब्ज़े में ले सकने की सामर्थ्य बताता है

    कितना दबाया हुआ है दूसरे के जीवन का रक़बा

    और पृष्ठभूमि में से झाँकती हैं कितनी वस्तुएँ

    इन बातों से ही फिर बनने लगती है

    इस संसार में किसी की भी आदरणीय पहचान।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुमार अम्बुज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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