असमाप्त

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आशुतोष दुबे

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असमाप्त

आशुतोष दुबे

और अधिकआशुतोष दुबे

    बारिश में सब तरफ़ कीचड़ था। कीचड़ खेल था। मज़ा और

    डर खेल में हाथ पकड़कर दौड़ते थे। सार्वजनिक उद्यानों

    में पुराने समलैंगिक, छोकरों को अपने साथ सिनेमा देखने

    के लिए फुसलाते थे। बीचोंबीच की सड़क पर चलते चले

    जाओ तो शहर ख़त्म हो जाता था। स्कूलों की इमारतें

    बच्चों को धीरे-धीरे कुतरती रहती थीं। पोस्टर को

    आँखों से निचोड़कर पूरा सिनेमा खींचा जा सकता था। ज़बान

    पर गाने भिनकते थे।

    औरतें दुख की उस धातु से बनी थीं जिसके बारे में विज्ञान

    चुप है। आदमियों की तामीर में कोई नामालूम बुरादा था

    जो शाम होते ही बिखरने लगता था। बच्चे सब कन्हैया बनना

    चाहते थे, पर शहर में कोई यमुना नहीं थी और कदंब के

    पेड़ तो काफ़ी बाद में दिखाई पड़े। सारे चिट्ठे कच्चे थे जिनके

    पुर्ज़े हवा में उड़ते थे। कथाओं की नायिकाएँ, उपन्यासों

    के-से भरे-पूरेपन के साथ लौटतीं और वापसी पर सबके

    गले लग कर रोती थीं।

    सुख से सब आदतन सहमते थे। ठंडा करके खाने की

    फ़िक्र में सुख उड़ जाता था। दरवाज़ों में दरारें थीं।

    शोक की प्रस्तुति था। खपरैल पर बिल्लियाँ लड़ती थीं।

    अपने बड़े से बड़े पाप लोग दिलचस्प क़िस्सों की तरह

    सुनाते थे। देवी के रतजनों में दीमक लगी थी।

    यह सब इस तरह था कि असमाप्त है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : यक़ीन की आयतें (पृष्ठ 103)
    • रचनाकार : आशुतोष दुबे
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

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