उस्ताद

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प्रभात मिलिंद

और अधिकप्रभात मिलिंद

     

    बिस्मिलाह ख़ान के लिए

    नदी की शांत देह पर विचरती है जैसे कोई कश्ती 
    ठंडी बयार के काँधे पर तिरता है कपास का सफ़ेद फाहा 
    किसी प्यासे गले में धीरे-धीरे घुलती है गुड़ की मिठास 
    पावस के दिनों में अरण्य में बजते हैं पत्तों के असंख्य साज़ 
    जैसे थके हुए बच्चों की आँखों में हौले से 
    उतरती है नींद की नाव...

    नब्बे साल के बच्चे की निष्कलुष किलकारी 
    जब एक फूँक में तब्दील होती है
    दुनिया में सबसे मोहक और दुर्लभ 
    संगीत का जन्म होता है उस क्षण 

    सुंदर संगीत और प्रेम की स्मृतियों ने 
    मुझे आत्मघातों से बार-बार बचाया है

    ‘आप राग और दुःख को 
    एक साथ दिमाग़ में रख भी नहीं सकते’

    पहली बार पटना के एक जलसे में सुना था तुमको 
    जाड़े की रात थी वह, और सर के ऊपर 
    तारों से टँके आसमान का शामियाना था 

    मलमल के कुर्ते और सफ़ेद दुशाले में 
    सजी तुम्हारी दुर्बल और जर्जर देह
    हाथों में तुम्हारा महबूब साज़ 
    जैसे प्रेयसी की कलाई थाम रखी हो कोमलता से
    और साँसों की धौंकनी से ढलकर 
    निकलता राग भीमपलासी...

    हवा की लहरों पर सवार लाट खाती पतंग सा 
    ऊपर की ओर जाता सुरों का आरोह 
    और खेतों में झुक आए मेघों से 
    बरसात की बूँदों-सा 
    अचानक गिरता हुआ अवरोह 

    अपने ही सुरों के बियाबान में 
    तुम इतनी दूर निकल चुके थे 
    कि श्रोताओं की तालियाँ भी 
    तुम तक नहीं पहुँच पा रही थीं
    और न तुमको घेर कर बैठे 
    संगतकारों की वाह-वाह 

    फिर बंदिशों की असंभव-सी 
    और जटिल यात्रा को तय कर 
    तुम स्थायी पर लौट आते थे,
    और कुछ पलों के लिए खुलती थीं तुम्हारी बंद आँखें 
    तब उन आँखों की चमक हीरे की कनी से 
    मुक़ाबला करती हुई दिखती थीं

    हालाँकि संगीत तुम्हारी दिन-ब-दिन जर्जर होती 
    काया को अमरत्व नहीं बख़्श पाया
    लेकिन तुम्हारी आत्मा को उसने 
    मृत्यु के भय से पूरी तरह मुक्त कर दिया था 

    गिरहकटों और लुटेरों से भरी इस दुनिया में 
    अपनी छूट चुकी मनुष्यता ओर गाहे-बगाहे लौट सकूँ 
    शायद इसीलिए मैं भी तुमको सुनता रहा ताउम्र... 

    संगीत तुम्हारा एक अदृश्य सा घर था 
    और एक शहर था जो तुम्हारी शिराओं में 
    रुधिर बन कर बहता रहा 
    जिसके बारे में तुम कहते थे 
    कि वह ‘बना ही रस से है’ 
    आज भी उस बनारस के घाट, मंदिर और चौक-चौबारे 
    तुम्हारी तानों और कहकहों से शादाब हैं

    ‘एक जेब थी जो तंग रही तमाम उम्र...’
    लेकिन अपने सुरों की तरह तुम 
    अपनी ग़ैरत और ज़मीन से कभी नहीं भटके 
    जबकि बाज़ार और विज्ञापन के इस दौर में 
    तुम्हारा इंतज़ार करते रहे महानगरों में बैठे 
    कई सौदागर और साहूकार 

    दुनिया बहुत निष्ठुर है उस्ताद!
    यह नहीं बख़्शेगी तुमको भी 
    यूँ तो तुम यदाकदा सुने जाते रहोगे 
    कलाविदों और रईसों के सनमख़ानों में 
    शराब के प्यालों और समय के प्रति 
    उनकी चिंताओं के बीच 
    फिर धीरे-धीरे धकेल दिए जाओगे 
    समय और स्मृति के बाहर एक रोज़ 

    कुछ सिरफिरे लोग फिर भी बचे रहेंगे 
    पृथ्वी के नष्ट होने-होने तक 
    अनहद में जब कभी गूँजेगी तुम्हारी तान 
    पागलों की तरह वे पूछा करेंगे... 
    कि इस साज़ का नाम क्या है 
    और किसने बनाई ऐसी जानलेवा बंदिश!

       
    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात मिलिंद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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