कविता लिखना

kawita likhna

शिव कुमार गांधी

शिव कुमार गांधी

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शिव कुमार गांधी

और अधिकशिव कुमार गांधी

     

    मेरे हाथों जिसकी हत्या हुई वह कला थी तुम नहीं...

    एक

    पूरे दृश्य से बाहर मन सिर्फ़ नीले में रंगा हुआ गरदन एक ओर झुकाए ख़ुद की ओर देखता हुआ लगता था दृश्य के अंदर उसके नहीं होने से दृश्य पर ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता था लेकिन इस तरह से दृश्य के अंदर अनेक दृश्यों के उपस्थित होने का भ्रम भी नहीं होता था 

    और इस विभ्रम में जीना काफ़ी सुविधाजनक था

    सारी नैतिकताओं के दृश्यों में मन फिर अपने स्थगन में किसी ओर तरह ‘गिरा’ दिखने लगा, जो गिरना ‘नैतिक’ में अनुपस्थित था, और यह सरंचना लोगों के लिए काफ़ी असुविधाजनक थी

    दो

    वहाँ अनेक घर होते हैं शहर की उम्र चार सौ बरस थी इतिहास कई पीढ़ियों में बँटा हुआ था शहर में पहाड़ भी है जिसके पीछे से सूरज नहीं उगता है लोग पहाड़ को शहर का सिर कहते है शहर के सिर पर पहाड़ बाहर से आने वाले लोगों को अजीब लगता है लेकिन जल्द ही इसकी आदत पड़ जाती थी क्योंकि जिन शहरों से बाहर के लोग आते हैं उन शहरों में कुछ ऐसी ही अजीब बातें पाई जाती है जैसे कि शहर में ख़ूब पेड़ है जो कि शहर के हाथ हैं बाद की पीढ़ियों में शहर के हाथ काटे देखे जाते थे तो यह बात और भी ज़्यादा अजीब लगती थी मार्मिक नहीं इसलिए यथास्थिति बनी रहती थी

    इतिहास के दृश्य में शहर कुछ ओर था शहर के दृश्य में इतिहास की परवाह करने वाली पीढ़ियाँ इतिहास निर्मित किन्हीं और दृश्यों को बनाने में व्यस्त थी पहाड़ का दृश्य वैसा ही उपस्थित था बस स्कूली बच्चे पहाड़ के बीच से नदी निकाल दिया करते थे और पीछे से सूरज और नदी के दोनों और झोंपड़ी और पेड़ यह जादू बड़ों को कम आता था अव्वल तो नदी थी ही नहीं होती तो भी वे उसके दोनों ओर बहुत सारे घर बनाते

    तीन

    उसने हाथों को पीला रँगा हुआ है आँखें नीली हो चुकी है वह अपने हाथों से अपनी गरदन को दबाए जा रही है

    शहर को कविता की आदत नहीं थी नहीं तो वे पीले हाथों को देख पाते गरदन दबाए जाने के दृश्य को शहर के विशाल दृश्य से सादृश्य कर पाते

    इस तरह यूँ वो पीले हाथ लिए अपनी नीली आँखों से नीले मन को देखती रहती थी

    उसकी टेबल पर कुछ फलों के साथ उसके उलझे हुए बाल फैले ही रहते हैं वह आईने में देखती जाती थी रंगीन पेंसिलों से अपनी देह में नई आकृतियाँ बनाती जाती है और देह से निकालती जाती थी अस्पष्ट आकृतियाँ जो कि उसकी टेबल से होती हुई उसकी आलमारियों में जमा होती जाती थी गंध उसकी धीरे धीरे उठती हुई शहर की गलियों में फैलने लगती थी

    लोग करवटें बदले हुए नाक पकड़ निकलते जाते हैं पेड़ों से हवा आनी रुक जाती थी चीलें तक अपना रास्ता बदल देती थीं शहर की गलियों में दिन-रात सन्नाटा साँय-साँय में समय गुज़ार देता था

    शहर की गलियाँ बनी तो होती है मन की गलियों की तरह लेकिन वे लोगों को अपने मन की तरह नहीं लगती थीं यूँ वे मन के दृश्यों से भिन्न हो जाती थीं
    दरवाज़ों से लोग गुज़रते थे खिड़कियों से बाहर देखते थे ये रोज़ की आदत में बदला हुआ काम था जो किसी भी शहर के लोग आसानी से कर पा सकते थे
    मन के दृश्य शहर की गलियों की तुलना में इतने तेज़ी से बदलते थे कि लोगों को भ्रम होता था कि ये इंसान का मन नहीं शैतान का है फिर लोग भी इंसान से शैतान बन जाते थे नैतिक दृश्यों में विन्यस्त और मन वहाँ से अपने स्थगन में अवस्थित

    यूँ शहर के इतिहास का एक रंग था जो नीले से अलग था वह नीला जो उसके मन का था

    चार

    यह काला जादू है दृश्यों के अलग हो जाने का
    मैं अब अपनी इस मुस्कुराहट को कैसे लिखूँ?

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिव कुमार गांधी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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