अपने कवि से

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भारतभूषण अग्रवाल

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भारतभूषण अग्रवाल

और अधिकभारतभूषण अग्रवाल

     

    एक

    कितनी संकुचित जीर्ण, वृद्धा हो गई आज कवि की भाषा!
    कितने प्रत्यावर्तन जीवन में चंचल लहरों के समान
    आए, बह गए; काल बुदबुद-सा उठा, मिटा; पर परंपरा—
    अभिभुक्त अभी परिवर्तित हुई न परिभाषा
    रूप की, व्यक्ति की। नव-विचार, नव-ज्ञान-रीति,
    नित-नित नवीन जीवन के स्वर, पर प्राचीना
    अब भी है वाणी की वीणा। कुछ अनुभव करते प्राण
    किंतु अभिव्यक्ति अन्य ही कुछ देती है उसे गिरा।
    इस भाँति आज कवि के अतिशय उत्कट विचार, सुख-दु:ख-प्रतीति
    रह जाते हैं कल्पना-मात्र। सब बंधन से दुष्कर बंधन
    है शब्दों का, जो नहीं निकट आने देता कवि एवं उसकी आत्मपूर्ति
    को जग के भौतिक सत्यों के; छाया के सदृश अर्थहीना
    करता है उस की वाणी को। कैसी विडंबना! स्थिर साधन
    यद्यपि चिर-गतिमय साध्य! देवता बदल गए, बदली न मूर्ति!

    दो

    कवि! तोड़ो अपना शब्द-जाल, जो आज खोखला, शून्य हुआ
    यह है अपने पुरुखों की वैभव-भोगमयी कलुषित वाणी,
    मदमत्त, विलासिनि! त्याग इसे! बनना है तुझ को तो अगुआ
    युग का, युग की भूखी, कमज़ोर हड्डियों का, जिन का पानी।
    है उठा खौल, घिर रहा विश्व पर घटाटोप बादल बन कर।
    बज नहीं सकेगा तेरी इस मधु की वंशी पर इनका स्वर
    गर्जना-भरा। सड़ गई आज यह गिरा अबल, घिस गई व्यक्ति
    छवि-कनक-प्रवालों के जालों में खो बैठी यह आत्म-शक्ति
    युग के मानव के सुख-दु:ख, आशा-प्रत्याशा का प्रतिनिधित्व
    इसके कंठ से नहीं संभव। यह सदा स्वर्ग-वासिनी रही
    अप्सरा बनी। जाने दे इसको स्वर्ग, खोज ले आज मही
    अपनी मिट्टी के पुतलों के शब्दों में ही अपना कवित्व;
    हमको न ज़रूरत आज देव-वाणी की, हम ख़ुद ढालेंगे
    जीवन की भट्ठी में भाषा, जी-चाहा रूप बना लेंगे।

    तीन

    इस छायामय भाषा ने कर डाला असत्य, अपदार्थ, हीन,
    तेरे लघु-जीवन का था जो एकांत सत्य—तेरे विचार
    में केवले जो था सार—वही तेरा प्रेयसि के लिए प्यार।
    तू भल गया। अज्ञान! रूप है मांस, रक्त, मृत्तिकाधीन
    शब्दाडंबर-चक्र में भ्रांत। अप्सरा बना डाली तू ने
    षोडश-वर्षीया रूपवती वह पढ़ी-लिखी लड़की। पागल!
    तू सुनता रहा मधुर नूपुर-ध्वनि यद्यपि बजती थी चप्पल।
    तु सोचा किया : भाव-वाचक है तत्त्व-शून्य, जिसको छूने
    की भी चेष्टा है व्यर्थ! दूर यों भाग गया तू जीवन से
    तू सदा सोचता रहा : ‘मुक्त हो जाऊँ जग के बंधन से
    उड़ कर दिगंत के पार'। सृष्टि को पाया तू ने क्षणभंगुर
    निज दिव्य-दृष्टि से। रे! तेरी यह भाषा तो है मात्र-मुकुर,
    उस दर्शन का जिसने देखा बस आसमान थोथा-नीला;
    नश्वरता से डर कर जिस ने देखी न प्रकृति चिर-गतिशीला।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 85)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : भारतभूषण अग्रवाल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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