खलकामी

khalkami

अनुराधा सिंह

और अधिकअनुराधा सिंह

    बाँटने से बरकत होती है

    कहते-कहते बुढ़ा गईं कितनी सदियाँ

    मैं तुम्हें ज़रा भी नहीं छोड़ पाई किसी के लिए

    एक बित्ता, एक रत्ती नहीं

    प्रेम ने महान नहीं बनाया

    अच्छा तक रहने दिया

    ऐसे कुंडली मारे बैठी रही

    तुम्हारी कुंठा और क्रोध तक पर

    कि दृष्टि और शब्दों पर एकाधिकार

    साधारण बात रह गई

    बिछाए रही अपनी ही त्वचा

    यूँ हर स्पर्श के नीचे

    कि भूल गए तुम्हारे तलवे पृथ्वी का बारहमासी परस

    तुम्हारी ग्रीवा के गहरे तिल पर बेड़ा डाले हैं

    कबसे मेरे नमक की सब नौकाएँ

    हाड़-मांस पर टिका रहा मोह

    भूलती गई सब लिखी पढ़ी दिव्य प्रेम की परिभाषाएँ

    इतना तक चाहती थी

    कि तुम मड़ुए का उपेक्षित खेत हो जाओ

    जिसमें रोप सकूँ

    दो-चार फूल अपनी कामना के निर्विघ्न

    पट्टेदारी परिग्रह नहीं

    कि कोई भी आए उगा ले सुनहरी फ़सल

    हरी कर ले अपनी आँख और आत्मा

    दबा ले पेटी भर कलदार सिक्के

    भर ले कुनबे का पेट

    और देखना चाहती थी तुम्हें

    ख़ंदक़ में दूरस्थ पुष्प-सा तिरस्कृत निरुपाय भी

    जो सुकुमार तितली को सौंप देता है सर्वस्व

    मूँद लेता है आँख

    अगाध सुख सुगंध से एक अंतिम बार

    सब सकार नकार लोक अलोक समझती हूँ

    फिर भी प्रेम में हो गई यूँ दुष्ट खलकामी

    एक स्त्री को शोभा देता है क्या

    चाहना चक्रवर्ती पुरुष से ऐसा एकमुखी प्रेम?

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुराधा सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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