उनींदे शहर के लिए लोरी

uninde shahr ke liye lori

अनाम कवि

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उनींदे शहर के लिए लोरी

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    सो जा, बेचैन उनींदे शहर

    हालाँकि बेतरह रौंदी गई है

    तेरी धमनियाँ और शिराएँ

    सो जा, अपने बीमार उजाले में

    अपने धुएँ और शोर में

    अपने रक्त के हाहाकार में सो जा

    हत्या की चुप्पी में

    कुचल मरे लोगों से उपजे

    कौतूहल में मुँह ढाँपकर सो जा

    सो जा मूर्तियों के भयानक सन्नाटे में

    गाहक के साथ जा चुकी

    लड़की की परछाईं में

    मुँह छिपाकर सो जा

    हालाँकि जाग रहे हैं, चौराहे

    सीटियों और लाठियों की आवाज़ें

    सुन रहे हैं महापुरुष

    उनकी पथराई आँखों के जागरण में

    छिपकर कहीं सो जा

    यहाँ कोई पखेरू नहीं, बदलते मौसम का

    कोई पेड़ और फूल नहीं पहचान का

    दूर-दूर तक स्वर नहीं त्योहार का

    याद्दाश्त खो चुके किसी भिखारी की नींद में सो जा

    अपने उदास चश्मों में

    जाग रही हैं अस्पतालें

    मरीज़ों की नींद और मृत्यु के बीच

    काँपते झीने परदों में सो जा

    सड़कें जहाँ हर रोज़ स्वागत और उत्सव के लिए सजती रहती हैं

    जिन पर दलाल पटाते हैं ग्राहक

    उन्हीं निर्लज्ज सौंदों के बीच

    पसार कर पैर सो जा

    अभी भी देर रात, गाड़ियों से

    रहे होंगे लोग सुदूर से

    आँखों में सपने लिए

    जबकि तेरी झीलों पर ठहर चुकी है धुँध

    इसी धुँध में छिपी है तेरी पहचान

    उसी पहचान को याद करते सो जा, सो जा कि

    तेरे पूर्वज-क़स्बे की कोई स्मृति

    शेष नहीं तेरे ज़ेहन में

    तेरा चेहरा उस ख़ुदग़र्ज़ बेटे की तरह है

    जो अपने हाल पर छोड़ आया है

    लाचार माँ-बाप, आज भी कोई बद्दुआ पीछा करती है

    तेरे सपनों में

    तेरा इतिहास, तुझ पर

    ताक़तवर के क़ाबिज़ होने का

    इतिहास है

    कमज़ोर, ग़रीबों को बेदख़ल

    और निष्कासित करने का बर्बर-इतिहास

    लूटने और जलाने का इतिहास

    जिसके काले दाग़ अभी शेष हैं

    तेरे जिस्म पर

    उसी काले रंग में डूबकर

    छिपाकर मुँह सो जा

    कल तेरे गर्भ से

    जन्म लेंगी ख़बरें

    चमकदार झूठ का मुलम्मा चढ़े

    शब्द होंगे आँखों के सामने

    उनके सफ़ेद झूठ की चादर में

    ढाँपकर मुँह, सो जा इस वक़्त

    इस वक़्त ख़बर से बाहर

    कोई पराजित और निराश

    गठरी बाँधे खड़ा होगा पटरी पर

    कोई छपाक् के साथ चला गया होगा अतल गहराइयों में

    सुनसान चौराहे पर

    कोई नशेला बक रहा होगा गालियाँ

    कोई आवारा कुत्तों के बीच

    कूड़ेदान में ढूँढ़ रहा होगा जूठन

    इनकी पराजित छाया में

    छिपाकर मुँह सो जा इस वक़्त।

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक अनाम कवि की कविताएँ (पृष्ठ 147)
    • संपादक : दूधनाथ सिंह
    • रचनाकार : अनाम कवि
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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