अनागरिक

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अजंता देव

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अजंता देव

और अधिकअजंता देव

     

    एक

    मैं ख़ुद को छुपा नहीं सकी किसी प्रागैतिहासिक चट्टान के पीछे 
    मेरे फ़्लैट की सबसे निचली मंज़िल से भी नीचे
    लगा दिए गए हैं वे सारे पत्थर 
    जिन पर सींग रगड़ता था बारहसिंगा 
    मेरे पास नहीं हैं 1957 के सिक्के 
    मेरे पिता का मैट्रिक पास होना तक प्रमाणित नहीं
    कहाँ है कहाँ है माता-पिता का विवाह सर्टिफिकेट 
    कह कर घर उठा चुकी हूँ सिर पर
    एक पीली-सी तस्वीर पर धुँधले मोहर को घूर रही हूँ तब से
    मैं शायद सिंधु घाटी से जोधपुर पहुँची गुणसूत्र हूँ
    मगर तेवर लातिनी हैं 
    उभरा माथा मेरा कैसा पुर्तगाली-पुर्तगाली लगता है
    केश तो अफ़्रीका की चुगली करते हैं 
    भाषा बांग्ला है, पर गंगा के इस पार वाली 
    उस पार वाली तो नाना बोलते थे
    कुछ भी हो, मैं ढूँढ़ निकालूँगी एक पर्ची 
    जो काफ़ी होगी मुझे नागरिक कहलाने को
    अतिनागरिकों के बीच।

    दो

    समुद्र के रास्ते 
    किसी भी देश तक पहुँच जाता है कूड़ा
    मनुष्य को करना पड़ता है इंतज़ार ठिठक कर 
    पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने पर बसने को।  

    तीन

    हर तरफ़ अपनी गंध छिड़क कर 
    हौंकता है देर तक
    अपने झुंड को इकट्ठा करता 
    खदेड़ने को तत्पर 
    आतुर बाघ की तरह उन्मत्त हो जाता है देश 
    किसी और देश के बाशिंदों को देख कर
    झाड़ियों के पीछे अधखाए शरीर पड़े रहते हैं
    किनारे से लौट जाते हैं भूखे मनुष्य 
    बहुत पुराना जंगल देश बन जाता है 
    पुराने जंगली कहलाने लगते हैं नागरिक। 

    चार

    विवाह एक समूचा देश है 
    अपनी सीमाओं पर खड़ा रहता है
    घुसपैठ के विरुद्ध 
    क़ायदे-क़ानून से लैस 
    इस देश में होती है
    सुख-सुविधा की कर वसूली ज़्यादा और 
    दिया जाता है कम
    इसका पासपोर्ट बहुत शक्तिशाली है
    सहजीवन वाले कमज़ोर हैं तीसरी दुनिया की तरह
    निर्धन नागरिक यहाँ भी अपमानित हैं
    धनी दर्प से क़दम ठोकता है यहाँ भी 
    मैं कल रात ही घुस चुकी हूँ इस देश में
    गले में डाल कर नक़ली पहचान-पत्र
    इसे मंगलसूत्र कहती है यहाँ की सरकार 
    यह हथियार है नागरिकों के हाथ में
    प्रकृति के अमंगल से लड़ने को।

    पाँच

    पद्मा नदी के ईलिश की तरह चपल था मेरा जीवन
    और मेरी सखी का गंगा के ईलिश जैसा 
    हम आते-जाते रहते इधर-उधर जीवन जल में 
    हमारी त्वचा चौंधती रहती लहरों पर चंद्रिमा-सी
    तब तक, जब तक गलफड़ों में अँगूठा डाल कर लटका न दिया गया 
    क्या रे!! क्या पकड़ा? गंगा या पद्मा?
    इस आवाज़ के बाद कोई ध्वनि नहीं हुई।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अजंता देव
    • प्रकाशन : सबद वेब पत्रिका

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