अकथ श्रमजीवन : न प्रवास, न पलायन

akath shramjiwan ha na prawas, na palayan

प्रकाश चंद्रायन

प्रकाश चंद्रायन

अकथ श्रमजीवन : न प्रवास, न पलायन

प्रकाश चंद्रायन

और अधिकप्रकाश चंद्रायन

    हम कभी प्रवास पर रहे कभी करते पलायन,

    जहाँ काम वहीं मौजूद हमारी जान हमारा तन-मन।

    गाँव बनाया गया उजड़ा दड़बा शहर नाकाबंद सुरंग,

    जकड़बंद देश प्राचीन श्रम शिविर है हम उसकी धड़कन।

    बहुत हुआ, तुझे शब्दों की पहचान भाषाई तमीज़,

    हम तो हर हिंसक उजाड़ में महाजीवन की खाँटी बीज।

    हम भीड़ रोग बोझ बस जीने का पूरा जज़्बा,

    वही सौ फ़ीसद धन जिस पर दस फ़ीसद का क़ब्ज़ा।

    हमारे बूते गति गतिमान है जान है जहान है पहचान है,

    हमारी परछाई तक दफ़ा हो यही पुराना फ़रमान है।

    अपने रचे एक्सप्रेस-वे से हम चले तो रेत ही रेत थी,

    बस ज़िंदा रहने की जिद थी साँस बचाने की चेत थी।

    संयोग है कि अमीरी ठसक में वे हमारा प्रसार देख सके,

    वरना समृद्ध रफ़्तार में अनदेखा कर सर्र से गुज़रते रहे।

    शुक्रिया धन्यवाद आभार थैंक्स हम कभी जताते नहीं,

    मौन कृतज्ञता का भाव हम भूलकर कभी छिपाते नहीं।

    जब उठाव में हम हक माँगेंगे तब सब भूल जाएँगे,

    कहेंगे कि याद करो वे फ़ाक़े हम कृतघ्न कहे जाएँगे

    हम कुछ नहीं भूलेंगे अपना वजूद याद कराएँगे,

    जहाँ भी कुछ बनता होगा हम वहीं जगह बनाएँगे।

    हमें माना ही गया माँग और आपूर्ति के बीच संसाधन,

    हर अंधड़ में धकेला गया अथक जीवन आजीवन।

    मिहनत की रोटी सच्ची ज़िल्लत की ख़ैरात झूठी,

    गाँव कूच में जली जत्थाबंद श्रमजीवन की तेज़ बत्ती।

    दरबदर देस को झाँकता रहा न्यू इंडिया सज-सँवर,

    हद पार उमड़ा हाशिया जैसे दूरियों को मापती लहर।

    बेसरम की झाड़ियों तक ने देखा जीवनचक्र त्रस्त है,

    समय ने दोटूक कहा सभ्यता पहले से रोगग्रस्त है।

    राजधानियाँ डरी रहीं कि उसे घेरें नहीं हम लाखों-लाख,

    घेराघेरी कर हम बन सकते थे मक्कारों की गलफाँस।

    नाशुक्रों के नाम पर थूका दग़ाबाज़ों को कर दिया माफ़,

    चौहद्दियों पर उठी दीवारें चुपचाप बोलते रहे नंगे पदचाप।

    बजा जो काली रात का घंटा बजता रहा बजता ही रहा,

    कहा गया जिसे महाआपदा वह कब-किस क्षण नहीं रहा।

    वही हुआ जो सदियों से कभी नहीं हटा तनिक नहीं घटा,

    कोप हो प्रकोप हो तोप हो मनमाना दनदनाया-दगा।

    अबे, यह अपडाउन ताक़त की छुट्टा आज़माइश है,

    भूख, बीमारी, ग़रीबी, जंग सब ज़ुल्मी फ़रमाइश है।

    फेंकें ज़िंदगी पर लदा जूआ यही साफ़ समझाइश है,

    अब इधर-उधर की चूक नहीं बदलाव ही ख़्वाहिश है।

    प्रवास पलायन बस विस्थापन-दर-विस्थापन,

    प्रवासी भगोड़े सिर्फ़ मिहनतकश अगुआ जन।

    सुनो!कौन पालेगा हमको सबको पालते-पोसते हम,

    जानो!यही तो हमारा अकथ मानव जीवन आंदोलन।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रकाश चंद्रायन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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