आख़िरी जंग

akhiri jang

मलखान सिंह

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आख़िरी जंग

मलखान सिंह

और अधिकमलखान सिंह

    परमेश्वर!

    कितनी पशुता से रौंदा है हमें

    तेरे इतिहास ने।

    देख, हमारे चेहरों को देख

    भूख की मार के निशान

    साफ़ दिखाई देंगे तुझे।

    हमारी पीठ को सहलाने पर

    बबूल के काँटों से दोनों

    मुट्ठियाँ भर जाएँगी तेरी।

    हमारे सूजे हुए कंधों को छू

    बैल के पके कंधे का दर्द भी

    हल्का लगेगा तुझे।

    हमारी बस्ती में

    खाँसती—बोझा ढोती

    लाशों को देख

    ज़िंदा रहने का साहस ही

    खो बैठेगा तू!

    हम फिर भी ज़िंदा हैं

    और तू! चुप है

    गूँगे की तरह चुप।

    गोया तू मुंसिफ़ नहीं

    शैतान का ही वंशज है

    जिसे हम नियंता समझ

    पूजते रहे

    और जीवन भर की

    वहशी चोट का जवाब

    हथेली की आड़ी—तिरछी

    लकीरों से बूझते रहे।

    चक्रधर!

    चाह कर भी हम

    नहीं चाह पाते तुझे

    क्योंकि हमारे गाँव के मुखिया की शक्ल

    हू-ब-हू तेरी शक्ल से मिलती है

    और तेरी बनी-ठनी मेहरिया

    नगर की शौक़ीन बनैनी

    दिखाई देती है हमें।

    हम जब भी—

    तेर क़दमों में सिर रखने की सोचते हैं

    तेरा धरती में गड़ा स्थूल लिंग

    अग्रज एकलव्य का कटा अँगूठा

    प्रतीत होता है हमें।

    तेरे आँगन में

    घुमड़ते धूम झुंड

    पुरखों की सुलगती चिता की

    याद दिलाते हैं

    और तेरी अर्द्ध कुंभाकार योनि पर

    बिखरी लाल गुलाबी पंखुड़ियाँ

    रोती-बिलखती आँखों से छीने गए

    सपने प्रतीत होती हैं।

    लीलाधर!

    हम जहाँ खड़े हैं वहाँ

    हर तरफ़ बहेलियों का ही बसेरा है।

    धरती से आकाश तक

    सतरंगी जाल तान रखे हैं उन्होंने

    समतल ज़मीं को खोद-खोद

    बीहड़ बना दिया है सूअरों ने

    जड़ों में ज़हर, दिलों में नफ़रत

    हवाओं में बारूद बो दिया निकम्मों ने।

    धनुर्धर!

    आज जान गए

    ठीक-ठीक जान गए हैं कि—

    कल निकम्मों के साथ,

    होने वाली आख़िरी जंग में

    तू हमारा सारथी नहीं होगा

    और पूरी की पूरी जंग

    हमें अपने ही बाज़ुओं से

    जीतना होगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 41)
    • संपादक : कँवल भारती
    • रचनाकार : मलखान सिंह
    • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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