आधे घंटे की बहस

aadhe ghante ki bahs

श्रीकांत वर्मा

श्रीकांत वर्मा

आधे घंटे की बहस

श्रीकांत वर्मा

और अधिकश्रीकांत वर्मा

    दफ़्तर में पिटने, दुनिया में जाकर चित्त होने, अथवा निकाले

    जाने के बाद

    क्या होता है, पिटकर आने के बाद, मैं सोचता हूँ, मुझको

    मतलब नहीं जहान से, मुझको बनना है वह, जो मुझसे

    पहले हो गए हैं, पिटने, चित्त होने, निकाले

    जाने के बाद।

    मुझको लिखना है, बस,

    पर मैं

    उठता हूँ, भृकुटी—

    लिखने का मतलब है नरक से गुज़रना।

    क्यों गुज़रूँ?

    तो जाओ,

    उतरो वैतरणी अपने से पहले की पूँछ पकड़। पूँछ अभी

    बाक़ी है।

    अथवा गऊदान करो। अनुसंधान करो जाकर किसी

    विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में,

    साग में नमक, राजनीति में ईमान,

    जीने में मज़ा

    नही रहा। नहीं रहा वह सब जिसे होना चाहिए था

    ईसा की बीसवीं शताब्दी के अड़सठवें

    वर्ष में।

    हर्ष से भरकर देखती है कन्या दुनिया में चित्त होकर लगातार

    घर की तरफ़ आते हुए

    पिता को

    चिता को

    बुझाओ मत। साध्वियाँ चली रही हैं, हया और बेशर्मी

    फली और फूली।

    वसंत के महीने में पैदा हुआ था वसंत, शिशिर में शिशिर,

    कार्तिक में कुतिया

    पूँछ छिपाए हुए

    ढूँढ़ती है।

    उठो, गिरे हुए योद्धा से, कहता अम्पायर है, उठो,

    गिरे हुए को

    उठाने में मज़ा है। उठता है, फिर से गिराए जाने को—

    पैसा वसूल हुआ। तितर-बितर वक़्त!

    मुझको भी जगह दो गैलरी में। मेरे परदादा को पछाड़ा था

    गामा पहलवान ने,

    दादा को सुभाने ने

    बाप को मलेरिया ने, मुझको दुर्योधन ने।

    दुर्योधन मुर्दाबाद! देश में मलेरिया नहीं रहा, मेरे

    परदादा की ज़मीन भी नहीं

    रही।

    किसको दूँ अपना बयान? हलफ़नामा

    उठाऊँ

    किसके सामने? कोई है? या केवल

    बियाबान है?

    यह उस सूदखोर बनिए का मकान है, जिसके तीन लड़के, हैज़ा

    चुनाव और आलस्य में

    मारे गए। देश में मनाया जा रह है शहीद-दिवस। शामिल होना है या नहीं? चलो

    फ्रंट पर। लड़ाई छिड़ने की संभावना है। ख़ास नहीं होती

    संभावना

    चाहे कश्मीर हो या कन्याकुमारी का समुद्र।

    महाबलिपुरम के नांदी ने जैसे ही डकार ली, चौंक गया

    कालजयी ब्राह्मण का वंश, याज्ञवल्क्य,

    फिर से विधान करो, नांदी

    डकराता है—

    शूद्र को प्रतिष्ठा दो। मुझको प्रतिष्ठा दो। यह कहकर

    मुझको बर्ख़ास्त किया जनमत ने कि

    प्रतिभा है, लेकिन उद्दंड है! बस केवल बीस वोट! दस

    जो मुझसे पहले हो गए, दस जो होंगे

    मुझसे बाद में।

    मैंने देखा, हैदराबाद में, टीपू सुल्तान को, बीदरी का काम

    इसी तरह, एक दिन

    मैं भी हो जाऊँगा बिल्कुल गुमनाम!

    ऐसा ही इसका क़ानून है, जिसे तोड़ने के अपराध में, दस हज़ार

    साल का अज्ञातवास भोगता है कौन,

    इस अनंत को—

    पृथ्वी में शायद रह जाएगी हवा जैसे साइकिल के ट्यूब में,

    जीता रहूँगा मैं ऊब में,

    जो भी हो, इतना तो है कि,

    इतना है कि जितने से मज़े में वक़्त, जो अन्यथा; बजता रहता है

    लगातार।

    अट्ठारह दिनों तक जीने के बाद महाभारत को, कैसे बिताए, वह

    रद्द किए गए

    हाल-हाल के दो हज़ार वर्ष, सोचने की बात है।

    भारत के लिए वज्रपात है... रश... लीड... जवाहरलाल

    नेहरू नहीं रहे... रिपीट... प्रधानमंत्री

    नेहरू

    नहीं रहे...

    (मोर टु फॉलो)

    लड़ना पड़ा मुझको जीवन-भर टटपुँजिए कवियों के दर्प से जो

    गुज़र गए

    मेरे क़रीब से।

    ग़रीब से ग़रीबन, नसीबन नसीब से, बनता है, कहता है

    व्याकरण,

    तोड़ो मत नियम को,

    कुछ भी नहीं रहेगा।

    कुछ भी नहीं रहा, लड़ना पड़ा मुझको

    पाणिनि के व्याकरण, स्मिथ की हिस्ट्री, डडले

    स्टैंप के भूगोल से, ग़लत है

    मैकाले का भारत, जो, क्या कहूँ मुझको मंज़ूर है!

    हुज़ूर मेरा बेटा बेक़सूर है, फाँसी दी जाए मुझे, कोर्टफ़ीस

    पहले दे चुका हूँ।

    रहम करें, माई-बाप! बंद करो अपनी बकवास!

    यह कहकर मैंने अवकाश लिया, अब मुझसे पढ़ा नहीं जाता

    इतिहास!

    मुझे भुला दिया जाए। अगर न्याय हो सकता है तो बस यही हो—

    गूँगों के अभिनय को जिसने बदलने की कोशिश की कविता में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 75)
    • रचनाकार : श्रीकांत वर्मा
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1992

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