कला पर गांधीजी के विचार

kala par gandhiji ke wichar

काशीनाथ नारायण त्रिवेदी

काशीनाथ नारायण त्रिवेदी

कला पर गांधीजी के विचार

काशीनाथ नारायण त्रिवेदी

और अधिककाशीनाथ नारायण त्रिवेदी

    कुछ समय पहले गुजराती के प्रसिद्ध मासिक पत्र 'प्रस्थान' में 'गांधीजी और कला' शीर्षक एक लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख में कहा गया था—

    गांधीजी ने देश में जो एक नया जीवन पैदा किया और उस जीवन से देश में कई तरह की जो जाग्रति हुई, उसमें कला-विषयक जाग्रति भी कुछ कम नहीं कही जा सकती—यद्यपि गांधीजी ने स्वयं इस संबंध में प्रत्यक्ष कुछ किया हो, सो नहीं। गांधीजी ने धर्मशास्त्र के गहन और विशेष अध्ययन के बिना और भाषा के गहरे अभ्यास के अभाब में भी इन दोनों क्षेत्रों में अच्छा काम किया है। गुजरात की समग्र भाषा ने जो एक नया स्वरूप धारण किया है, उसमें उनका प्रत्यक्ष हाथ है। परंतु दूसरी कलाओं के क्षेत्र में उन्होंने कोई प्रत्यक्ष काम किया हो, यह जान नहीं पड़ता। उनके चरित्र पर रस्किन और टाल्सटाय जैसे दो प्रखर संत कलाकारों का प्रभाव पड़ा है, इसे उन्होंने भी मंजूर किया है; परंतु इन कलाकारों के कारण उनमें कला-विषयक अभिरुचि पैदा हुई हो और इस संबंध में उन्होंने कोई ख़ास काम किया हो, इसका कहीं पता नहीं चलता। हाँ, उन्होंने संगीत की अभिरुचि बढ़ाई और लोगों को उस ओर आकर्षित किया। इसका आरंभ एक तरह से आश्रम में अध्यापक श्री नारायण मोरेश्वर खरे के आगमन से हुभा। तब से गुजरात संगीत-कला का किस तरह रसपान कर रहा है, सो सर्वत्र विदित ही है। तो भी यह कहा जा सकता है कि खरे साहब इतने वर्षों से आश्रम में रहते हैं, फिर भी यह तो हमने नहीं सुना कि गांधीजी को गाना आया हो। हाँ वे संगीत से दिलचस्पी रखते हैं, और यह भलीभाँति जानते हैं कि देश के उत्थान में संगीत का क्या स्थान है; पर इस संबंध में उन्होंने कोई अधिक चर्चा नहीं की है। फ़क़त कोई पाँच वर्ष पहले श्री दिलीप कुमार राय के साथ थोड़ी संगीत-चर्चा हुई थी और वह 'नवजीवन' में छपी भी थी। इसके अतिरिक्त प्रकाश्य रूप में उन्होंने ख़ुद संगीत की कोई चर्चा की हो, इसका हमें पता नहीं।

    संगीत के सिवा किसी दूसरी कला के बारे में उन्होंने किसी दिन कुछ भी कहा हो, हम नहीं जानते। आश्रम के मकानों में या उनकी बनवाई हुई गुजरात विद्यापीठ की इमारत में भी किसी प्रकार की कला की चेष्टा नहीं की गई। गांधीजी की आत्मकथा में कहीं भी कला-विषयक चर्चा नहीं पाई जाती।

    गांधीजी पर टाल्सटाय का संत रूप में ही प्रभाव पड़ा है, और वे संत बने हैं—कलाकार नहीं बने। इस सिलसिले में हम श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी तुलना कर सकते हैं। गांधीजी और कवि ठाकुर ये दोनों वर्तमान संसार के दो महान व्यक्ति हैं। इनमें से एक को हम महान संत के रूप में और दूसरे को कलाकार के रूप में पहचान सकेंगे।

    गांधीजी के संबंध में कदाचित यह भी कहा जा सकता है कि कला के क्षेत्र में विहार करने का उन्हें समय न मिला हो। इधर उनकी सारी मनोवृत्ति स्वराज्य में ही तन्मय होने के कारण संभव है, वह इस ओर दृष्टिपात न करते हों।

    मैं इस लेख को पढ़ चुका था, अतः मेरे मन में गांधीजी के कला-संबंधी विचारों को जानने की इच्छा थी, इसलिए गत 14वीं दिसंबर को यरवदा मंदिर जाने वाली डाक में मैंने उनसे एक साथ ही कला पर कई प्रश्न कर डाले। 25 दिसंबर को बापूजी का 'गागर में सागर' वाली उक्ति को चरितार्थ करने वाला पत्र मिला। उसमें उन्होंने कला के संबंध में जो उद्गार प्रकट किए हैं, उन पर प्रत्येक व्यक्ति को मनन करना चाहिए। हमारे हिंदी-संसार में सुरुचि की कमी और लोगों की स्वार्थपरता के कारण कला का बड़ा ह्रास हो गया है, इसलिए हमारे हिंदी-पाठकों को महात्माजी के विचार विशेष रूप से पढ़ने चाहिए। यहाँ प्रश्न और उत्तर दोनों दिए जाते हैं।

    कला का स्थान और रूप

    प्रश्न—मनुष्य के जीवन में कला का क्या और किस रूप में स्थान है, या होना चाहिए? सच्ची कला किसमें है? आज बाज़ारों में साहित्य और चित्रकला में जो कला के नाम से पुकारा जाता है, उसमें सच्ची कला कितनी है? महर्षि टाल्सटाय के कला-संबंधी विचारों पर आपकी क्या राय है?

    संगीत-कला का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है, ऐसी दशा में प्रत्येक पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में उसे स्थान क्यों न मिलना चाहिए? यदि मिलना आवश्यक है, तो किस रूप में?

    सिनेमा आदि में जो बहनें नटी आदि का अभिनय करती है, उनकी मर्यादा क्या हो? आज उनके अभिनय में विशुद्ध कला है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। 

    ग़रीब किसान, मज़दूर और नौकरीपेशा लोग दिन भर के परिश्रम के बाद क्या करें, जिससे उनका जीवन सुखमय और कलामय बने?


    'कर्मसुकौशलम्' ही कला है

    उत्तर—कला-विहीन मनुष्य पशु-समान है, पर कला किसे कहा जाए? 'कला कर्मसुकौशलम्' है। गीता के तीसरे अध्याय का योग, यह संपूर्ण कला है। यही बात बाह्य कला पर भी लागू होती है। जिसे करोड़ों ग्रहण न कर सकें, वह कला नहीं, पर स्वच्छंद है, योग है; फिर भले वह कला कंठ की हो, या कपड़े की या पत्थर की। करोड़ों लोगों का एक आवाज़ से रामधुन चलाना कला है और आवश्यक है। बहुतेरे मंदिर कलामय हैं और वह कला ऐसी है कि उसे करोड़ों ग्रहण कर सकते हैं। मंदिरों में पूजा-पाठादि का आवश्यकतानुसार श्रद्धापूर्वक होना कला का नमूना है। यों जहाँ समय, क्षेत्र, संयोग का प्रमाण—ख़याल—रखा जाता है, वहाँ कला है। फ़िल्म मुझे पसंद नहीं, मैं सिनेमा में कभी गया नहीं।

    विचारपूर्वक काम करने से उसमें रस पैदा होता ही है। विचारपूर्वक किया गया काम कलामय बनता है। और सच्ची कला सदा रसमय है। कला ही रस है, यों भी कह सकते हैं।

    यज्ञमय जीवन कला की पराकाष्ठा है। सच्चा रस उसी में है, क्योंकि उसमें से इसके नित नए झरने झरते हैं। मनुष्य उसे पीते हुए थकता नहीं, झरने कभी सूखते नहीं। जो यज्ञ बोझ-रूप लगे, वह यज्ञ नहीं; खटके वह त्याग नहीं। भोग का परिणाम नाश है। त्याग का फल अमरता। रस स्वतंत्र वस्तु नहीं। रस इमारी वृत्ति में है। एक को नाटक के पदों में मज़ा आवेगा, दूसरे को आकाश में जो नित नए परिवर्तन होते रहते हैं, उनमें मज़ा आवेगा। अर्थात् रस तालीम या अभ्यास का विषय है। बचपन में रस के रूप में जिनका अभ्यास कराया जाता है, रस के रूप में जिनका तालीम जनता लेती है, वे रस माने जाते हैं। एक राष्ट्र या प्रजा को जो रसमय प्रतीत होता है, दूसरे राष्ट्र या दूसरी प्रजा को वह रसहीन लगता है।

    सेवा में तो सोलह शृंगार सजाने होते हैं, अपनी समस्त कला उसमें उड़ेलनी होती है, वह है पहली चीज़ और बाद में है अपनी सेवा।

    प्रश्न—संगीत और चित्रकला सीखने से कौन-कौन से गुणों का विकास होता है? विद्यार्थी के लिए इनका कितना परिचय आवश्यक है? 

    उत्तर—संगीत से ईश्वर का ध्यान आसानी के साथ किया जा सकता है। संगीत और चित्रकला समस्त विश्व की एक भाषा है। संगीत से विशेषकर कंठ खुलता है और चित्रकला से हाथ या आँख खुलती है। भक्ति-परायणता सीखने के लिए पर्याप्त हो, इतना इसका परिचय आवश्यक है।

    इस प्रश्नोत्तर के अतिरिक्त, गंधर्व महाविद्यालय की 'संगीत पत्रिका’ में गांधीजी ने संगीत के संबंध में लिखा है—

    एक श्लोक में कहा है, संगीत-ज्ञान से शून्य आदमी, अगर वह योगी न हो तो, पशुवत् है। सच पूछा जाए तो योगी भी संगीत के बिना अपना काम नहीं चलाता। उसका संगीत हृदय-वीणा में से निकलता है, इस कारण हम उसे सुन नहीं पाते। योगी हृदय द्वारा भगवान का भजन करता है। हम कंठ द्वारा उसका भजन करें और दूसरे जो इस तरह उसका भजन करते हैं, उसे सुनें। यों करते हुए हम अपने हृदय में निरंतर गूँजने वाले संगीत को सुनने लगेंगे।  
    स्रोत :
    • पुस्तक : विशाल भारत (पृष्ठ 19)
    • रचनाकार : काशीनाथ नारायण त्रिवेदी
    • संस्करण : 1931

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