नागमती वियोग (चौदह)

nagamti wiyog (chaudah)

मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी

नागमती वियोग (चौदह)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    जेठ जरै जग बहै लुवारा। उटै बवंडर धिकै पहारा॥

    बिरह गाजि हनिवंत होइ जागा। लंका डाह करै तन लागा॥

    चारिहुँ पवन झँकोरै आगी। लंका डाहि पलंका लागी॥

    दहि भइ स्याम नदी कालिंदी। बिरह कि आगि कठिन असि मंदी॥

    उठे आगि आवै आँधी। नैन सूझ मरौं दु:ख बाँधी॥

    अधजर भई माँसु तन सूखा। लागेउ बिरह काग होइ भूखा॥

    माँसु खाइ अब हाड़न्ह लागा। अबहूँ आउ आवत सुनि भागा॥

    परबत समुँद मेघ ससि दिनअर सहि सकहिं यह आगि।

    मुहमद सती सराहिऐ जरै जो अस पिय लागि॥

    जेठ में सारा संसार जलने लगा। लू चलने लगी, बवंडर उठने लगे और पहाड़ दहकने लगे। विरह गरजकर हनुमान की तरह जागा और शरीर में लंका दहन करने लगा। चार दिशाओं से चलने वाले चारों पवन आग को झकोरते हैं। वह अग्नि लंका को जलाकर अब पलंग में लग गई है। वह बाला जलकर कालिंदी नदी की भाँति काली हो गई है। विरह की अग्नि मंदी आँच की तरह बड़ी दुःसह होती है। अग्नि उठने लगी और आँधी चलने लगी। आँखों से कुछ दिखाई नहीं पड़ता। दुःख में उठने वाली हूलों से मैं मरी जा रही हूँ। मैं अधजली हो गई हूँ। शरीर का माँस सूख गया है। विरह भूखे कौवे की तरह उसे खाने लगा है। मांस खाकर अब हड्डियों पर चिपटा है। प्रियतम, तुम अब भी जाओ तो तुम्हारा आना सुनते ही वह भाग जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 354)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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