नखशिख (चौदह)

nakhshikh (chaudah)

मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी

नखशिख (चौदह)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    लंक पुहुमि अस आहि काहूँ। केहरि कहौं ओहि सरि ताहूँ॥

    बसा लंक बरनै जग झीनी। तेहि तें अधिक लंक वह खीनी॥

    परिहँस पिअर भए तेहिं बसा। लीन्हे लंक लोगन्ह कहँ डँसा॥

    जानहुँ नलिनि खंड दुइ भई। दुहुँ बिच लंक तार रहि गई॥

    हिय सौं मोरि चलै वह तागा। पग देत कत सहि सक लागा॥

    छुद्र घंटि मोहहिं नर राजा। इंद्र अखार आइ जनु साजा॥

    मानहुँ बीन गहे कामिनी। रागहिं सबै राग रागिनी॥

    सिंघ जीता लंक सरि हारि लीन्ह बन बासु।

    तेहिं रिस रकत पिअ मनई कर खाइ मार कै मांसु॥

    पृथ्वी पर ऐसी कटि और किसी की नहीं है, जैसी पद्मावती की है। सिंह के पास कहूँ, तो उसकी भी उसके साथ बराबरी नहीं है। बर्र की कमर को संसार पतली कहता है, किंतु पद्मावती की कमर उससे भी पतली है। इस ईर्ष्या से बर्रें पीली पड़ गई और अपनी कमर लिए हुए लोगों को डँसती फिरती हैं। मानो कमलिनी के दो टुकड़ों में टूट जाने पर बीच में पतले तार रह गए हैं, वही उसकी कमर है। वे तार हृदय की गति से भी मुड़ जाते हैं। पर यदि वह पैर उठाकर चले तो वह जोड़ कैसे सह सकेगा? हे राजा, कमर में क्षुद्र घंटिकाएँ बजती हुई मनुष्यों को मोहती हैं, मानो इंद्र का लवाजमा ठाठ-बाट (झंकारती हुई अप्सरा और वाद्यों) के साथ आया हो। वह ध्वनि ऐसी है, मानो स्त्रियाँ वीणा लिए सब राग-रागिनी गा रही हों।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 112)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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